अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 53
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
त्वष्टा॑दुहि॒त्रे व॑ह॒तुं कृ॑णोति॒ तेने॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ समे॑ति। य॒मस्य॑ मा॒ताप॑र्यु॒ह्यमा॑ना म॒हो जा॒या विव॑स्वतो ननाश ॥
स्वर सहित पद पाठत्वष्टा॑ । दु॒हि॒त्रे । व॒ह॒तुम् । कृ॒णो॒ति॒ । तेन॑ । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । सम् । ए॒ति॒ । य॒मस्य॑ । मा॒ता । प॒रि॒ऽउ॒ह्यमा॑ना । म॒ह: । जा॒या । विव॑स्वत: । न॒ना॒श॒ ॥१.५३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वष्टादुहित्रे वहतुं कृणोति तेनेदं विश्वं भुवनं समेति। यमस्य मातापर्युह्यमाना महो जाया विवस्वतो ननाश ॥
स्वर रहित पद पाठत्वष्टा । दुहित्रे । वहतुम् । कृणोति । तेन । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । सम् । एति । यमस्य । माता । परिऽउह्यमाना । मह: । जाया । विवस्वत: । ननाश ॥१.५३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 53
भाषार्थ -
(त्वष्टा) उषा के रूप का निर्माण करनेवाला अनुदित सूर्य, (दुहित्रे) उषारूपी दुहिता के लिये (वहतुम्) विवाह (कृणोति) रचाता है, (तेन) इस कारण (विश्वं भुवनम्) समग्र प्राणी और अप्राणी जगत (समेति) मानो इकट्ठा होता है। (यमस्य) दिन और रात के जोड़े का (माता) निर्माण करनेवाली उषा (पर्युह्यमाना) जब चली जा रही होती है, तब (महः) तेजस्वी चमकते (विवस्वतः) सूर्य की (जाया) जायारात्री (ननाश) विनष्ट हो जाती है, अदृष्ट हो जाती है।
टिप्पणी -
[त्वष्टा = "त्वष्टा वै रूपाणि करोति" (तै० २।७।२।१)। त्वष्टा से अभिप्राय अनुदित सूर्य का है। उस काल में सूर्य की रङ्ग-बिरङ्गी रश्मियां उषा के रूप में पूर्वी आकाश में चमकने लगती हैं। यह मानो उषा का पूर्वी आकाश से विवाह है। इस समय प्राणी जगत् जाग उठा होता है, और अप्राणी जगत् भी चमकने लगता है, मानो वह उषा के विवाह में सम्मिलित हुआ है। तदनन्तर तेजस्वी सूर्य चमकने लगता है तब सूर्य की जाया अर्थात् रात्री अदृष्ट हो जाती है। पितृ-प्रकरण में इस मन्त्र का उल्लेख यह दर्शाने के लिये है कि पितृयज्ञ इस काल में होना चाहिये, रात्रीकाल में नहीं।]