अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
न ते॒ सखा॑स॒ख्यं व॑ष्ट्ये॒तत्सल॑क्ष्मा॒ यद्विषु॑रूपा॒ भव॑ति। म॒हस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्यवी॒रा दि॒वो ध॒र्तार॑ उर्वि॒या परि॑ ख्यन् ॥
स्वर सहित पद पाठन । ते॒ । सखा॑ । स॒ख्यम् । व॒ष्टि॒ । ए॒तत् । सऽल॑क्ष्मा । य॒त् । विषु॑ऽरूपा । भवा॑ति । म॒ह: । पु॒त्रास॑: । असु॑रस्य । वी॒रा: । दि॒व: । ध॒र्तार॑: । उ॒र्वि॒या । परि॑ । ख्य॒न् ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
न ते सखासख्यं वष्ट्येतत्सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवति। महस्पुत्रासो असुरस्यवीरा दिवो धर्तार उर्विया परि ख्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठन । ते । सखा । सख्यम् । वष्टि । एतत् । सऽलक्ष्मा । यत् । विषुऽरूपा । भवाति । मह: । पुत्रास: । असुरस्य । वीरा: । दिव: । धर्तार: । उर्विया । परि । ख्यन् ॥१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(ते) तेरा (सखा) समान-ख्यातिवाला, तेरे (एतत्) इस (सख्यम्) सख्य को, (न) नहीं (वष्टि) चाहता; (यद्) क्योंकि (सलक्ष्मा) तू समान-लक्षणोंवाली है। (विषुरूपा) विवाह के लिये वधू विभिन्न विषम लक्षणोंवाली (भवति) होनी चाहिये। (महः असुरस्य) महाप्रज्ञ और महाबली परमेश्वर के (वीराः पुत्राः) वीर पुत्र, (दिवः धर्तारः) जो कि द्युलोक का भी धारण कर रहे हैं, वे (उर्विया) पृथिवी का भी (परि ख्यन्) पूर्णतया निरीक्षण कर रहे हैं।
टिप्पणी -
[यम कहता है यमी से-रजवीर्य की दृष्टि से हम दोनों समान ख्यातिवाले हैं, चूंकि हम दोनों एक ही माता-पिता की जोड़िया सन्तानें हैं। इसलिये रज-वीर्य के गुणों की दृष्टि से समान हैं। तू विवाह का प्रस्ताव करती हुई, समान लक्षणोंवाली होती हुई भी, विभिन्न लक्षणोंवालीसी अपने आप को दर्शा रही है। समान रज-वीर्यवालों का परस्पर विवाह "Eugenic-science" अर्थात् उत्पत्तिशास्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध है। ओषधियों, वृक्षों, वनस्पतियों में भी सजातीय, परन्तु विलक्षण गुणोंवाली शाखाओं की कलमें लगाई जाती हैं, तभी इन पर फूल तथा फल उत्कृष्ट गुणोंवाले होते हैं। वैदिक धर्म की दृष्टि से भी, विवाह में माता की सात पीढ़ियां, तथा पिता के गोत्र परित्याज्य कहे गये हैं। देख! हम कहीं छिपकर भी परस्पर विवाह नहीं कर सकते। क्योंकि सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् परमेश्वर के पुत्र अर्थात् नियम, जो कि द्युलोक के अनगिनत तारागणों का धारण कर रहे हैं, वे ही पृथिवी का भी पूर्णतया निरीक्षण कर रहे हैं। वे नियम वीर हैं, हम उन्हें परास्त नहीं कर सकते। वे सुदृढ़ और कठोर हैं। उर्विया = उर्वी + डियाच्। असुर = असु + र (वाला)। असु=प्रज्ञा (निघं० ३।९); असु = प्राण (निरु० ३।२।८)। पुत्रासः वीराः=इन सुदृढ़ नियमों को "पुत्र" कहा हैं, जो कि सब को "पुनीत" करते, और सब का "त्राण" करते हैं। नियमों में ढीलापन बिगाड़ देता है। अथर्ववेद में इन नियमों को "दिव्यस्पशः" अर्थात् दिव्यगुप्तचर भी कहा है, जो कि इस जगत् में विचर रहे हैं। जो मानों हजारों आंखोंवाले हैं जो कि भूमि तथा भूमि से परे तक को भी देख रहे - हैं। यथा-"दिव स्पशः प्र चरन्तीदमस्य सहस्राक्षा अति पश्यन्ति भूमिम्" (४।१६।४)।]