अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 54
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
प्रेहि॒ प्रेहि॑प॒थिभिः॑ पू॒र्याणै॒र्येना॑ ते॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒ परे॑ताः। उ॒भा राजा॑नौस्व॒धया॒ मद॑न्तौ य॒मं प॑श्यासि॒ वरु॑णं च दे॒वम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । इ॒हि॒ । प्र । इ॒हि॒ । प॒थिऽभि॑: । पू॒:ऽयानै॑: । येन॑ । ते॒ । पूर्वे॑ । पि॒तर॑: । परा॑ऽइता: । उ॒भा । राजा॑नौ । स्व॒धया॑ । मद॑न्तौ । य॒मम् । प॒श्या॒सि॒ । वरु॑णम् । च॒ । दे॒वम् ॥१.५४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रेहि प्रेहिपथिभिः पूर्याणैर्येना ते पूर्वे पितरः परेताः। उभा राजानौस्वधया मदन्तौ यमं पश्यासि वरुणं च देवम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । इहि । प्र । इहि । पथिऽभि: । पू:ऽयानै: । येन । ते । पूर्वे । पितर: । पराऽइता: । उभा । राजानौ । स्वधया । मदन्तौ । यमम् । पश्यासि । वरुणम् । च । देवम् ॥१.५४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 54
भाषार्थ -
वानप्रस्थ धारण करनेवाले को कहा जाता है कि (प्रेहि) जा, (पूर्याणैः) नागरिक-रथों द्वारा (पथिभिः) तथा नागरिक मार्गों द्वारा (प्रेहि) जा, (येन) जिस या जिन मार्गों द्वारा (ते) तेरे (पूर्वे पितरः) पिता पितामह आदि अगले-अगले आश्रमों में (परेताः) गए हैं। वहां तू (यमं देवम्) यम देव का (च) और (वरुणं देवम्) वरुणदेव का (पश्यासि) दर्शन करेगा, जो (उभा) दोनों कि (राजानौ) उस-उस आश्रम के राजा हैं, और (स्वधया) अपने-अपने स्वाभाविक धारण-सामर्थ्य द्वारा (मदन्तौ) कान्तिमान् हैं, शोभायमान हैं।
टिप्पणी -
[परेताः = देखो मन्त्रसंख्या (५०)। राजानौ = प्रत्येक आश्रम के राजा, अर्थात् अपने-अपने आश्रम के कुलपति। स्वधया= स्व +धा (धारणे)-तृतीयैकवचन। मदन्तौ = मद कान्ति (शोभा)। यमं वरुणम् = अथर्ववेद ब्रह्मचर्य सूक्त में आचार्य को "मृत्यु और वरुण" कहा है। यथा - आचार्यो मृत्युर्वरुणः (अ० ११।५।१४)। मन्त्र में "मृत्यु" शब्द द्वारा "यम" अर्थ अभिप्रेत है। और "वरुण" शब्द द्वारा "वरण करनेवाला परमेश्वर" अभिप्रेत है। यथा - अमा घृतं कृणुते केवलमाचार्यो भूत्वा वरुणो यद्यदैच्छत्प्रजापतौ। (अथर्व० ११।५।१५)। अर्थात् "वरुण" आचार्य बनकर ब्रह्मचर्याश्रम रूपी घर (अमा= गृह, निघं० ३।४) में ब्रह्मचारी को वह ज्ञानघृत पिलाता है, जो कि उसे गृहस्थाश्रम में अपेक्षित है।" मृत्यु अर्थात् यम-आचार्य का निज स्वाभाविक रूप है, और वरुण परमेश्वर का रूप है। मृत्यु का अभिप्राय है कि आचार्य अपने आश्रम के कड़े नियमों द्वारा ब्रह्मचारी में आमूलचूल परिवर्तन कर, उसके पूर्वरूप को विनष्ट कर उसे दूसरा जन्म देकर द्विजन्मा बना देता है। तदनन्तर ब्रह्मचारी आचार्य में स्थित जो वरुणरूप है उसका दर्शन पा लेता है। प्रत्येक आश्रम में कोई न कोई आचार्य होता है, और प्रत्येक आश्रम के आचार्य के दो रूप होने चाहियें- मृत्युरूप और वरुणरूप। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों के भी आचार्यों के ये दो रूप होने चाहियें। ये दो रूप उस-उस आश्रम के राजा हैं, कुलपति हैं। परमेश्वर निज वरुणरूप में आचार्य में विद्यमान है, जो कि द्विजन्मा का "वरण" करके उसे निज स्वरूप का प्रत्यक्ष करवाता है। यथा - "यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥" (कठ० १।२।२२; मुण्डक ४।२।३)। वृणुते इति वरुणः।]