अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
न य॑त्पु॒राच॑कृ॒मा कद्ध॑ नू॒नमृ॒तं वद॑न्तो॒ अनृ॑तं॒ रपे॑म। ग॑न्ध॒र्वो अ॒प्स्वप्या॑ च॒योषा॒ सा नौ॒ नाभिः॑ पर॒मं जा॒मि तन्नौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । यत् । पु॒रा । च॒कृ॒म । कत् । ह॒ । नू॒नम् । ऋ॒तम् । वद॑न्त: । अनृ॑तम् । र॒पे॒म॒ । ग॒न्ध॒र्व: । अ॒प्ऽसु । अप्या॑ । च॒ । योषा॑ । सा । नौ॒ । नाभि॑: । प॒र॒मम् । जा॒मि । तत् । नौ॒ ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
न यत्पुराचकृमा कद्ध नूनमृतं वदन्तो अनृतं रपेम। गन्धर्वो अप्स्वप्या चयोषा सा नौ नाभिः परमं जामि तन्नौ ॥
स्वर रहित पद पाठन । यत् । पुरा । चकृम । कत् । ह । नूनम् । ऋतम् । वदन्त: । अनृतम् । रपेम । गन्धर्व: । अप्ऽसु । अप्या । च । योषा । सा । नौ । नाभि: । परमम् । जामि । तत् । नौ ॥१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
यम कहता है यमी से कि- (यत्) जो काम (पुरा) पुरा काल की सृष्टियों में (न चकृम) हम मनुष्यों ने नहीं किया, (कत् ह) कैसे उसे अब हम करें? (ऋतं वदन्तः) सत्य बोलते हुए हम (कत् ह), कैसे (अनृतम्) असत्य (रपेम) बोलें। (गन्धर्वः) वेदवाणी का धारण करनेवाला मैं (अप्सु) उन्हीं रज-वीर्य के जलों से पैदा हुआ हूं, (अप्या च) और उन्हीं रज-वीर्य के जलों में तू स्त्रीरूप में पैदा हुई है। (नौ) हम दोनों का भाई-बहिन का (सा ताभिः) वह ही दृढ़ बन्धन है। (नौ) हम दोनों का (तत्) वह ही (परमं जामि) जन्मकृत परम सम्बन्ध है।
टिप्पणी -
[नूनम्=विचिकित्सार्थीयः (निरु० १।२।६)। विचिकित्सा=शंकित विवेचना। रपेम=रप व्यक्तायां वाचि। गन्धर्वः =गाम्=वाणी (निघं० १।११) धरति। इसके द्वारा यम कहता है कि ब्रह्मचर्याश्रम में मैंने वेदवाणी का मनन किया है। मैं वेदवाणी के विरुद्ध कैसे चलूं ? अप्सु, अप्या=अप् या आपः शब्द जलवाचक हैं। परन्तु यहां "अप्" द्वारा सामान्य जल का वर्णन अभीष्ट नहीं। मन्त्र में उन जलों का वर्णन है, जिन से गन्धर्व और योषा की उत्पत्ति हुई हैं। वें जल हैं रक्तरूप। पुरुष के रक्त में वीर्यकणों (male cells sperm cells, या spermatozoa) का निवास होता है, और स्त्री के रक्त में female cells या ova का निवास होता है। इन दोनों के मेल से सन्तानोत्पत्ति होती है। ova को Egg-cells भी कहते हैं। अथर्ववेद में रक्त को "आपः" कहा है। यथा- को अस्मिन्नापो व्यदधात्विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः ॥ अथर्व० १०।२।११॥ मन्त्र में "पुरुष" शब्द द्वारा "आपः" की सत्ता स्त्री-पुरुष साधारण में दर्शाई है, जिनका कि सरण हृदय-समुद्र से और हृदय-समुद्र की ओर होता है। जो कि स्वाद में तीव्र हैं। लाल, ईषत्-लाल, और ताम्बे की vapour (धूम्र) के सदृश नील वर्ण के हैं और जो शरीर में ऊपर की ओर, नीचे की ओर तथा पार्श्वों की ओर सदा गति करते रहते हैं। योषा का अर्थ है स्त्री। योषा शब्द "यु" धातु से बनता है, जिस का अर्थ है "मिश्रण"। चूंकि वीर्यकण और रजः कण का मिश्रण स्त्री में होता है, इसलिये स्त्री को योषा कहते हैं। यौतीति योषा (उणा० ३।६२) बाहुलकात्।]