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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 43
    सूक्त - सरस्वती देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    सर॑स्वति॒ यास॒रथं॑ य॒याथो॒क्थैः स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती। स॑हस्रा॒र्घमि॒डोअत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाय धेहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर॑स्वति । या । स॒ऽरथ॑म् । य॒याथ॑ । उ॒क्थै: । स्व॒धाभि॑: । दे॒वि॒ । पि॒तृऽभि॑: । मद॑न्ती । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒र्घम् । इ॒ड: । अत्र॑ । भा॒गम् । रा॒य: । पोष॑म् ।यज॑मानाय । धे॒हि॒ ॥१.४३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरस्वति यासरथं ययाथोक्थैः स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती। सहस्रार्घमिडोअत्र भागं रायस्पोषं यजमानाय धेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सरस्वति । या । सऽरथम् । ययाथ । उक्थै: । स्वधाभि: । देवि । पितृऽभि: । मदन्ती । सहस्रऽअर्घम् । इड: । अत्र । भागम् । राय: । पोषम् ।यजमानाय । धेहि ॥१.४३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 43

    भाषार्थ -
    (देवि) हे ज्ञानप्रदायिनी! (सरस्वति) ज्ञानमयी वेदवाणी ! (पितृभिः) माता-पिता आचार्य आदि पितरों द्वारा (मदन्ती) ज्ञान-विज्ञान का स्तवन करती हुई (या) जो तू, (उक्थैः) निज सूक्तों के साथ, और (स्वधाभिः) विविध लौकिक और परलौकिक अन्नों का ज्ञान देती हुई, (सरथम्) और इन ज्ञानों के साथ रमण करती हुई (ययाथ) हमें प्राप्त हुई है, वह तू (अत्र) इस जीवन में, (यजमानाय) तेरा यजन अर्थात् स्वाध्याय सङ्ग तथा ब्रह्मदान करनेवाले के लिये, (इडः) मन्त्रों में स्तुत (सहस्रार्घम) बहुमूल्य (भागम्) सेवनीय भाग, तथा (रायस्पोषम्) लौकिक और परलौकिक सम्पत्तियों का परिपोषण, (धेहि) स्थापित कर, प्रदान कर।

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