अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
को अ॒स्य वे॑दप्रथ॒मस्याह्नः॒ क ईं॑ ददर्श॒ क इ॒ह प्र वो॑चत्। बृ॒हन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒धाम॒ कदु॑ ब्रव आहनो॒ वीच्या॒ नॄन् ॥
स्वर सहित पद पाठक: । अ॒स्य । वे॒द॒ । प्र॒थ॒मस्य॑ । अह्न॑: । क: । ई॒म् । द॒द॒र्श॒ । क: । इ॒ह । प्र । वो॒च॒त् । बृ॒हत् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धाम॑ । कत् । ऊं॒ इति॑ । ब्र॒व॒: । आ॒ह॒न॒:। वीच्या॑ । नॄन् ॥१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
को अस्य वेदप्रथमस्याह्नः क ईं ददर्श क इह प्र वोचत्। बृहन्मित्रस्य वरुणस्यधाम कदु ब्रव आहनो वीच्या नॄन् ॥
स्वर रहित पद पाठक: । अस्य । वेद । प्रथमस्य । अह्न: । क: । ईम् । ददर्श । क: । इह । प्र । वोचत् । बृहत् । मित्रस्य । वरुणस्य । धाम । कत् । ऊं इति । ब्रव: । आहन:। वीच्या । नॄन् ॥१.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
यमी कहती है यम को कि- (अस्य) इस जगत् के (प्रथमस्य अह्नः) प्रथम दिन को (कः वेद) कौन जानता है? (ईम्) इस प्रथम दिन को (कः ददर्श) किस ने कभी देखा है ? (इह) इस जीवन में (कः) किस ने इस तत्त्व का (प्रवोचत्) प्रवचन किया है ? (मित्रस्य वरुणस्य) सब के मित्र और साथ ही सब को फन्दे से घेरनेवाले का (बृहत् धाम) बड़ा तेज हैं, (कद् उ ब्रवः) यह तू कैसे कहता है ? (आहनः) हे हृदय पर चोट पहुंचानेवाले यम ! मैं तो (नॄन्) पुरुषों को (वीच्या) धोखेबाज (ब्रवे) कहती हूं।
टिप्पणी -
[वीच्या = वीच्यान्। व्यच् व्याजीकरणे। यमी कहती है कि तू धर्म के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करता है। देख, जगत् के प्रथम दिन तक को तो कोई जानता नहीं, तो धर्म के तत्त्व को कौन जान सकता है ? तू परमेश्वर को सब का मित्र कहता है, परन्तु वरुणरूप में उसने सब को अपने फन्दों में क्यों जकड़ रखा है ? (मन्त्रसंख्या २,९)।]