अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 56
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
उ॒शन्त॑स्त्वेधीमह्यु॒शन्तः॒ समि॑धीमहि। उ॒शन्नु॑श॒त आ व॑ह पि॒तॄन्ह॒विषे॒अत्त॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒शन्त॑: । त्वा॒ । इ॒धी॒म॒हि॒ । उ॒शन्त॑: । सम् । इ॒धी॒म॒हि॒ । उ॒शन् । उ॒श॒त: । आ । व॒ह॒ । पि॒तॄन् । ह॒विषे॑ । अत्त॑वे ॥१.५६॥
स्वर रहित मन्त्र
उशन्तस्त्वेधीमह्युशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशत आ वह पितॄन्हविषेअत्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठउशन्त: । त्वा । इधीमहि । उशन्त: । सम् । इधीमहि । उशन् । उशत: । आ । वह । पितॄन् । हविषे । अत्तवे ॥१.५६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 56
भाषार्थ -
हे यज्ञियाग्नि ! (उशन्तः) पितरों का भोजन सत्कार चाहते हुए हम गृहस्थी, (त्वा) तुझे (इधीमहि) प्रदीप्त करते हैं, (उशन्तः) इस निमित्त पितृयज्ञ के लिये (समिधीमहि) तुझे हम समिधाधान द्वारा प्रदीप्त करते हैं। (उशन्) हे कान्ति-सम्पन्न यज्ञियाग्नि! (उशतः) इच्छुक (पितॄन्) पितरों को तू (आ वह) हमें प्राप्त करा। ताकि वे (हविषे) प्रदत्त अन्न (अत्तवे) आकर खा सके।
टिप्पणी -
[पितरों को निमन्त्रण देकर, पितृयज्ञ करना चाहिये। यज्ञशील गृहस्थी के अन्न को ही पितर स्वीकार करते हैं। हवि= अर्थात् सत्कारार्थ सिद्ध किया अन्न। यतः अन्न के खाने का वर्णन है, इसलिये पितर जीवित हैं, जिन्हें कि निमन्त्रण दिया गया है। यज्ञियाग्नि का सम्बोधन कविशैली के अनुरूप है। उशन् = वश कान्तौ (= दीप्तौ), उशन्तः= कामयमानाः। उशतेः= कामयमानान्।]