अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 45
आहंपि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑। ब॑र्हि॒षदो॒ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्त॑ इ॒हाग॑मिष्ठाः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒हम् । पि॒तॄन् । सु॒ऽवि॒दत्रा॑न् । अ॒वि॒त्सि॒ । नपा॑तम् । च॒ । वि॒ऽक्रम॑णम् । च॒ । विष्णो॑: । ब॒र्हि॒ऽसद॑: । ये । स्व॒धया॑ । सु॒तस्य॑ । भज॑न्त । पि॒त्व: । ते । इ॒ह । आऽग॑मिष्ठा: ॥१.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
आहंपितॄन्त्सुविदत्राँ अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः। बर्हिषदोये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वस्त इहागमिष्ठाः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अहम् । पितॄन् । सुऽविदत्रान् । अवित्सि । नपातम् । च । विऽक्रमणम् । च । विष्णो: । बर्हिऽसद: । ये । स्वधया । सुतस्य । भजन्त । पित्व: । ते । इह । आऽगमिष्ठा: ॥१.४५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 45
भाषार्थ -
श्रद्धावान् गृहस्थी कहता है कि मेरे दिये निमन्त्रण पर (अहम्) मैंने (सुविदत्रान्) सुविज्ञ (पितॄन्) पितरों को (आ अवित्सि) प्राप्त किया है। और उन के सदुपदेशों द्वारा मैंने (विष्णोः) सर्वव्यापक परमेश्वर की उन नियम-व्यवस्थाओं को (न पातम्) जिन से कि मनुष्य का पतन नहीं होता, तथा (विक्रमण च) सर्वव्यापक परमेश्वर के विक्रम और पराक्रम को मैंने जान लिया है। (ये) जो पितर कि (बर्हिषदः) कुशासनों पर बैठ कर, (स्वधया) अपनी-अपनी धारणा के अनुसार, (सुतस्य) पुत्र के (पित्वः) अन्न का (भजन्त) सेवन करते हैं, (ते) वे पितर (इह) इस मेरे घर में (आ गमिष्ठाः) आ पधारे हैं।
टिप्पणी -
[नपातम् का अर्थ कइयों ने "पोता" किया है। क्या विष्णु का भी कोई "पोता" है? स्वधा = स्व + धा (धारणा)। पितुः= अन्न (निघं० २।७); पित्वः षष्ठ्येकवचन। विक्रमणम् = सर्वव्यापक परमेश्वर बड़ा पराक्रमी है। उस की नियम व्यवस्थाओं का उल्लंघन कर दण्ड से वञ्चित कोई नहीं हो सकता।]