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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 59
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - पुरोबृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अङ्गि॑रोभिर्य॒ज्ञियै॒रा ग॑ही॒ह यम॑ वैरू॒पैरि॒ह मा॑दयस्व। विव॑स्वन्तं हुवे॒ यःपि॒ता ते॒ऽस्मिन्ब॒र्हिष्या नि॒षद्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अङ्गि॑र:ऽभि: । य॒ज्ञियै॑: । आ । ग॒हि॒ । इ॒ह । यम॑ । वै॒रू॒पै: । इ॒ह । मा॒द॒य॒स्व॒ । विव॑स्वन्तम् । हु॒वे॒ । य: । पि॒ता । ते॒ । अ॒स्मिन् । ब॒र्हिषि॑ । आ । नि॒ऽसद्य॑ ॥१.५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अङ्गिरोभिर्यज्ञियैरा गहीह यम वैरूपैरिह मादयस्व। विवस्वन्तं हुवे यःपिता तेऽस्मिन्बर्हिष्या निषद्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अङ्गिर:ऽभि: । यज्ञियै: । आ । गहि । इह । यम । वैरूपै: । इह । मादयस्व । विवस्वन्तम् । हुवे । य: । पिता । ते । अस्मिन् । बर्हिषि । आ । निऽसद्य ॥१.५९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 59

    भाषार्थ -
    (यम) हे आश्रम के नियन्ता ! आप, (यज्ञियैः) पूजनीय, (अङ्गिरोभिः) नाना विद्याओं के अङ्ग-प्रत्यङ्गों को जाननेवाले, (वैरूपैः) ज्ञानों या रूप रङ्ग की दृष्टि से विविध रूपोंवाले महात्माओं समेत, (इह) इस पितृयज्ञ में (आ गहि) आईये, पधारिये, और (मादयस्व) प्रस्तुत अन्नों द्वारा अपने आप को संतृप्त तथा संतुष्ट कीजिये। मैं गृहस्थी ने (विस्वन्तम्) अन्धकार-विनाशक सूर्य के सदृश अज्ञानान्धकार-विनाशक विज्ञानी को भी (हुवे) निमन्त्रित किया है, (यः) जो कि (पिता) हम सब का ज्ञानदाता पिता है। (ते) वे आप सब, (अस्मिन) इस (बर्हिषि) पितृयज्ञ में कुशासनों पर (आ निषद्य) विराजमान होकर अपने आप को संतृप्त तथा सन्तुष्ट कीजिये।

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