अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 29
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
द्यावा॑ ह॒क्षामा॑ प्रथ॒मे ऋ॒तेना॑भिश्रा॒वे भ॑वतः सत्य॒वाचा॑। दे॒वो यन्मर्ता॑न्य॒जथा॑यकृ॒ण्वन्त्सीद॒द्धोता॑ प्र॒त्यङ् स्वमसुं॒ यन् ॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑ । ह॒ । क्षामा॑ । प्र॒थ॒मे इति॑ । ऋ॒तेन॑ । अ॒भि॒ऽश्रा॒वे । भ॒व॒त॒: । स॒त्य॒ऽवाचा॑ । दे॒व: । यत् । मर्ता॑न् । य॒जथा॑य । कृ॒ण्वन् । सीद॑त् । होता॑ । प्र॒त्यङ् । स्वम् । असु॑म् । यन् ॥१.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावा हक्षामा प्रथमे ऋतेनाभिश्रावे भवतः सत्यवाचा। देवो यन्मर्तान्यजथायकृण्वन्त्सीदद्धोता प्रत्यङ् स्वमसुं यन् ॥
स्वर रहित पद पाठद्यावा । ह । क्षामा । प्रथमे इति । ऋतेन । अभिऽश्रावे । भवत: । सत्यऽवाचा । देव: । यत् । मर्तान् । यजथाय । कृण्वन् । सीदत् । होता । प्रत्यङ् । स्वम् । असुम् । यन् ॥१.२९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 29
भाषार्थ -
(ऋतेन) सृष्टि के नियमानुसार (सत्यवाचा) परमेश्वरीय सत्येच्छा के शब्दों के द्वारा, (प्रथमे) विस्तृत (द्यावा क्षामा) द्यूलोक और भूलोक (अभिश्रावे भवतः) प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं, अर्थात् उत्पन्न होते हैं। तदनन्तर (स्वम् असुम्) निज स्वाभाविक प्रज्ञान को (यन्) प्राप्त होता हुआ, (प्रत्यङ्) जगत् के प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त हुआ, (देवः) वह देवाधिदेव, (यत्) जब (मर्तान्) मनुष्यों को (यजथाय) यज्ञिय कर्मों के करने के लिये (कृण्वन्) पैदा करता है, तब वह (सीदत्) मनुष्यों के हृदयों में स्थित होकर (होता) उन्हें शक्तियां प्रदान करता है।
टिप्पणी -
[सत्यवाचा = "तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय" (छा० अ० ६, सं० २), सर्जन के प्रारम्भ में परमेश्वर में यह इच्छा प्रकट होती है कि "मैं जगत् के नानारूपों में प्रकट होऊ" तब जगत् का सर्जन होता है। "प्रकट होऊं"- यह इच्छा मानसिक शब्द है, मानसिक वाणी है, जो कि सत्यस्वरूपा है, जो कि प्रत्येक सृष्ट्यारम्भ में प्रकट होती है। इस इच्छामयी वाणी के पश्चात् परमेश्वरीय ईक्षण होता है। इसे मन्त्र में "असु" कहा है। निघण्टु में असु का अर्थ दिया है "प्रज्ञा" (३।९)। यह प्रज्ञा या प्रज्ञान "ईक्षण" रूप है। यथा - "तदैक्षत" (छान्दो० अ० ६।२), तथा "ईक्षतेर्नाशब्दम्" (वेदान्त १।१।५)। मनुष्यों में भी किसी कार्य के आरम्भ में पहिले इच्छा पैदा होती है। तदनन्तर इच्छा को कार्यान्वित करने के लिये तदुपयोगी साधनों का निरीक्षण होता है। मन्त्र में यह भी कहा है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य है - यज्ञिय कर्मों का करना। इस निमित्त परमेश्वर मनुष्यों के हृदयों में स्थित है, और उन्हें यज्ञिय कर्मों के करने का मार्ग दर्शाता रहता है।]