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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    यू॒यम॑ग्नेशन्तमाभिस्त॒नूभि॑रीजा॒नम॒भि लो॒कं स्व॒र्गम्। अश्वा॑ भू॒त्वा पृ॑ष्टि॒वाहो॑वहाथ॒ यत्र॑ दे॒वैः स॑ध॒मादं॒ मद॑न्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यू॒यम् । अ॒ग्ने॒ । शम्ऽत॑माभि: । त॒नूभि॑: । ई॒जा॒नम् । अ॒भि । लो॒कम् । स्व॒:ऽगम् । अश्वा॑: ।भू॒त्वा । पृ॒ष्टि॒ऽवाह॑: । व॒हा॒थ॒ । यत्र॑ । दे॒वै: । स॒ध॒ऽमाद॑म् । मद॑न्ति ॥४.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यूयमग्नेशन्तमाभिस्तनूभिरीजानमभि लोकं स्वर्गम्। अश्वा भूत्वा पृष्टिवाहोवहाथ यत्र देवैः सधमादं मदन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यूयम् । अग्ने । शम्ऽतमाभि: । तनूभि: । ईजानम् । अभि । लोकम् । स्व:ऽगम् । अश्वा: ।भूत्वा । पृष्टिऽवाह: । वहाथ । यत्र । देवै: । सधऽमादम् । मदन्ति ॥४.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 10

    भाषार्थ -
    हे सुकर्मी महात्माओ! (यूयम्) तुम, तथा (अग्ने) हे सर्वाग्रणी परमेश्वर! आप, (शंतमाभिः) प्रशान्त अर्थात् सत्वमयी (तनूभिः) स्थूल सूक्ष्म और कारण तनुओं के साथ वर्तमान (ईजानम्) यजमान को, (स्वर्गम्) विशेष सुखों और सुख-साधनाओं से सम्पन्न (लोकम् अभि) लोक अर्थात् वानप्रस्थ तथा संन्यासाश्रम की ओर (वहाथ) ले चलो। (पृष्टिवाह) पृष्ठवाही (अश्वाः भूत्वा) अश्वों के समान होकर तुम इसे ले चलो, उस आश्रम में ले चलो, (यत्र) जिसमें कि यजमान लोग (देवैः) दिव्य कोटि के महात्माओं के साथ मिल कर (सधमादम्) पारस्परिक आनन्द में (मदन्ति) आनन्दित रहते हैं।

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