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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 30
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
कोशं॑ दुहन्तिक॒लशं॒ चतु॑र्बिल॒मिडां॑ धे॒नुं मधु॑मतीं स्व॒स्तये॑। ऊर्जं॒ मद॑न्ती॒मदि॑तिं॒जने॒ष्वग्ने॒ मा हिं॑सीः पर॒मे व्योमन् ॥
स्वर सहित पद पाठकोश॑म् । दु॒ह॒न्ति॒ । क॒लश॑म् । चतु॑:ऽबिलम् । इडा॑म् । धे॒नुम् । मधु॑ऽमतीम् । स्व॒स्तये॑ । ऊर्ज॑म् । मद॑न्तीम् । अदि॑तिम् । जने॑षु । अग्ने॑ । मा । हिं॒सी॒: । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥४.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
कोशं दुहन्तिकलशं चतुर्बिलमिडां धेनुं मधुमतीं स्वस्तये। ऊर्जं मदन्तीमदितिंजनेष्वग्ने मा हिंसीः परमे व्योमन् ॥
स्वर रहित पद पाठकोशम् । दुहन्ति । कलशम् । चतु:ऽबिलम् । इडाम् । धेनुम् । मधुऽमतीम् । स्वस्तये । ऊर्जम् । मदन्तीम् । अदितिम् । जनेषु । अग्ने । मा । हिंसी: । परमे । विऽओमन् ॥४.३०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 30
भाषार्थ -
(कलशम्) प्रसुप्त आनन्दरस मात्रावाले, (चतुर्बिलम्) चार बिलों वाले (कोशम्) हृदय-कोश से, (स्वस्तये) कल्याण के लिए, योगीजन (दुहन्ति) आनन्दरस दोहते हैं। तथा (स्वस्तये) कल्याण के लिए, स्वाध्यायी जन (मधुमतीम्) मधुर ज्ञान-दुग्ध वाली (इडाम्) वेदवाणीरूप (धेनुम्) दुधार-गौ को (दुहन्ति) दोहते हैं। (अग्ने) हे ज्ञानाग्नि सम्पन्न मनुष्य! तू (जनेषु) सब जनों के निमित्त (ऊर्जम्) बलदायक तथा प्राणदायक, ज्ञान-रस का (मदन्तीम्) स्तवन करनेवाली, तथा जनों की (परमे व्योमन्) परम रक्षा में विद्यमान (अदितिम्) अनश्वर वेदवाणी का (मा हिंसीः) परित्याग न कर१।
टिप्पणी -
[कोशम्=हृदय। यथा— अ॒ष्टाच॑क्रा॒ नव॑द्वारा दे॒वानां॒ पूर॑यो॒ध्या। तस्यां॑ हिर॒ण्ययः॒ “कोशः॑” स्व॒र्गो ज्योति॒षावृ॑तः॥ तस्मि॑न्हिर॒ण्यये॒ “कोशे॒” त्र्य रे॒ त्रिप्र॑तिष्ठिते। तस्मि॒न्यद्य॒क्षमा॑त्म॒न्वत्तद्वै ब्र॑ह्म॒विदो॑ विदुः॥ अथर्व॰ १०.२.३१-३२॥ चतुर्बिलम्=हृदय के बाह्य-स्तर में चार बिलें हैं। एक बिल द्वारा शरीर के ऊपरी भाग का और अधोभाग का गन्दा खून हृदय में आता है। दूसरे बिल द्वारा हृदय का यह गन्दा खून फेफड़ों में जाकर शुद्ध होता है। तीसरे बिल द्वारा फेफड़ों का शुद्ध खून हृदय में आता है। चौथे बिल द्वारा हृदय का शुद्ध खून शरीर में चक्कर काटता है। कलशम्=कलाः अस्मिन् शेरते मात्राः (निरुक्त० ११.१.१२)। ये कलाएं या मात्राएं आनन्दमात्राएं हैं, जो कि हृदय में प्रसुप्त रहती हैं, जिन्हें योगी अनुभव करता है। इडाम्=इळा=वाक् (निघं० १.११)। अदितिम्=वाक् (निघं० १.११)। व्योमन्= वि+अव् (रक्षणे)+मनिन्+सप्तम्येकवचन। मन्त्र में योगिजनों, स्वाध्यायशीलों, और सामान्य जनों के कर्त्तव्यों का वर्णन हुआ है। योगिजन तो हृदय में ध्यानावस्थित होकर आनन्दमात्रा का आस्वादन करते; स्वाध्यायशील यज्ञिय कर्मों और देवताओं के स्वरूपों का तथा अध्यात्मतत्वों का ज्ञान-लाभ करते; तथा सामान्यजन भी वेदोपदेशों के श्रवण द्वारा बलशाली और प्राणप्रद ज्ञानरस का आस्वादन करते हैं। स्वाध्याय का फल निरुक्तकार के शब्दों में निम्नलिखित है—“याज्ञदैवते पुष्पफले, देवताध्यात्मे वा” (१.६.२०)।] [१. मन्त्र में गौ का भी वर्णन प्रतीत होता है। कोश–गौ का मुहाना, लेवा udder। कलशम्= जिसमें दुग्धमात्रा शयन करती है। चतुर्बिलम्= चार स्तन। मधुमतीम्= मधुर दुग्धवाली। मदन्तीम्= प्रसन्न तथा चारे द्वारा तृप्त। अदितिम्= अखण्डनीया, अबध्या। हिंसीः= हिंसा करना। ऊर्जम्= बलदायक दुग्ध। इडा= इळा= गौ (निघं० २।११); अदिति= गौ (निघं० २.११)=अवध्या गौ।]