Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अथर्वा
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
आ रो॑हत॒जनि॑त्रीं जातवेदसः पितृ॒याणैः॒ सं व॒ आ रो॑हयामि। अवा॑ड्ढ॒व्येषि॒तो ह॑व्यवा॒हई॑जा॒नं यु॒क्ताः सु॒कृतां॑ धत्त लो॒के ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रो॒ह॒त॒ । जनि॑त्रीम् । जा॒तऽवे॑दस: । पि॒तृऽयानै॑: । सम् । व॒: । आ । रो॒ह॒या॒मि॒ । अवा॑ट् । ह॒व्या । इ॒षि॒त: । ह॒व्य॒ऽवाह॑: । ई॒जा॒नम् । यु॒क्ता: । सु॒ऽकृता॑म् । ध॒त्त॒ ।लो॒के ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोहतजनित्रीं जातवेदसः पितृयाणैः सं व आ रोहयामि। अवाड्ढव्येषितो हव्यवाहईजानं युक्ताः सुकृतां धत्त लोके ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रोहत । जनित्रीम् । जातऽवेदस: । पितृऽयानै: । सम् । व: । आ । रोहयामि । अवाट् । हव्या । इषित: । हव्यऽवाह: । ईजानम् । युक्ता: । सुऽकृताम् । धत्त ।लोके ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(जातवेदसः) हे अध्यात्मविद्या के जाननेवाले सद्गहस्थी ! तुम (पितृयाणैः) पितृयाण मार्गों द्वारा (जननीम्) जगज्जननी की प्राप्ति को लक्ष्य करके (आरोहत) आरोहण करो। (वः) तुम्हें मैं तुम्हारा गुरु (सम्) सम्यक् विधि से (आरोहयामि) इस मार्ग पर आरूड़ कराता हूं। (हव्यवाहः) तुम्हारी आत्मसमर्पणरूपी हवियों को स्वीकार करनेवाले परमेश्वर ने (ईषितः) चाहनापूर्वक (हव्या) तुम्हारी इन हवियों को (अवाट्) प्राप्त किया है, स्वीकृत किया है। (युक्ताः) हे योगयुक्त योगीजनो ! (ईजानम्) पंचमहायज्ञों के करनेवाले को (सुकृतां लोके) सुकर्मियों के समाज में (धत्त) स्थापित करो।
टिप्पणी -
[आरोहत = "आरोहणमाक्रमणं जीवतो जीवतोऽयनम्" (अथर्व० ५।३०।७)। पितृयाण मार्ग = विवाहानन्तर मर्यादानुसार माता-पिता बन कर सन्तानों को सुशिक्षा द्वारा सन्मार्गी बनाना और गृहस्थोपयुक्त पंच-महायज्ञों को करते हुए सदा जगज्जननी की प्राप्ति को लक्ष्य बना कर उस ओर पग बढ़ाते जाना। और इस निमित्त योगिजनों की सेवाएं करना, यह सद्गहस्थी का लक्ष्य होना चाहिये।]