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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 43
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - उपरिष्टाद् बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
यास्ते॑ धा॒नाअ॑नुकि॒रामि॑ ति॒लमि॑श्राः स्व॒धाव॑तीः। तास्ते॑ सन्तू॒द्भ्वीःप्र॒भ्वीस्तास्ते॑ य॒मो राजानु॑ मन्यताम् ॥
स्वर सहित पद पाठया: । ते॒ । धा॒ना: । अ॒नु॒ऽकि॒रामि॑ । ति॒लऽमि॑श्रा:। स्व॒धाऽव॑ती: । ता: । ते॒ । स॒न्तु॒ । उ॒त्ऽभ्वी: । ता: । ते॒ । य॒म: । राजा॑ । अनु॑ । म॒न्य॒ता॒म् ॥४.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
यास्ते धानाअनुकिरामि तिलमिश्राः स्वधावतीः। तास्ते सन्तूद्भ्वीःप्रभ्वीस्तास्ते यमो राजानु मन्यताम् ॥
स्वर रहित पद पाठया: । ते । धाना: । अनुऽकिरामि । तिलऽमिश्रा:। स्वधाऽवती: । ता: । ते । सन्तु । उत्ऽभ्वी: । ता: । ते । यम: । राजा । अनु । मन्यताम् ॥४.४३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 43
भाषार्थ -
हे वानप्रस्थी पिता आदि! (ते) आप के लिए (तिलमिश्राः) तिलमिश्रित, (स्वधावतीः) तथा धारण-पोषण करनेवाले, (याः) जिन (धानाः) भुने जौं आदि के कारणभूत बीजों को (अनु) ऋत्वनुसार (किरामि) मैं खेतों में फैंकता हूँ, बोता हूँ, (ते) आपके लिए (ताः) वे बीज (उद्भ्वीः) उद्भूत अर्थात् अंकुरित (सन्तु) हों, (प्रभ्वीः) प्रभूतमात्रा में हों। (ते) आपके उपभोग के लिए (ताः) उन उपजों की (यमः) राष्ट्रनियन्ता (राजा) राजा (अनुमन्यताम्) अनुमति दे, स्वीकृति प्रदान करे।
टिप्पणी -
[गृहस्थ पुरुषों का कर्त्तव्य होना चाहिए कि वे पितरों की भूमियों तथा वनों में ऋत्वानुसार बीज बोकर, और खेतियाँ काट कर पितरों की सेवा किया करें। अनुमन्यताम्= राजा उपज का नियतांश कर रूप में लेता है, परन्तु वैदिक प्रथानुसार विना कर लिए विरक्तों को उन की उपज के उपभोग के लिए राजनियम अनुमति प्रदान करे।]