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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 52
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
एदं ब॒र्हिर॑सदो॒मेध्यो॑ऽभूः॒ प्रति॑ त्वा जानन्तु पि॒तरः॒ परे॑तम्। य॑थाप॒रु त॒न्वं संभ॑रस्व गात्राणि ते॒ ब्रह्म॑णा कल्पयामि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒दम् । ब॒र्हि: । अ॒स॒द॒: । मेध्य॑: । अ॒भू॒: । प्रति॑ । त्वा॒ । जा॒न॒न्तु॒ । पि॒तर॑: । परा॑ऽइतम् । य॒था॒ऽप॒रु । त॒न्व॑म् । सम् । भ॒र॒स्व॒ । गात्रा॑णि । ते॒ । ब्रह्म॑णा । क॒ल्प॒या॒मि॒ ॥४.५२॥
स्वर रहित मन्त्र
एदं बर्हिरसदोमेध्योऽभूः प्रति त्वा जानन्तु पितरः परेतम्। यथापरु तन्वं संभरस्व गात्राणि ते ब्रह्मणा कल्पयामि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इदम् । बर्हि: । असद: । मेध्य: । अभू: । प्रति । त्वा । जानन्तु । पितर: । पराऽइतम् । यथाऽपरु । तन्वम् । सम् । भरस्व । गात्राणि । ते । ब्रह्मणा । कल्पयामि ॥४.५२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 52
भाषार्थ -
हे आश्रम परिवर्तन करनेवाले सद्गृहस्थ! तू (इदम्) इस (बर्हिः) कुशासन पर (असदः) बैठा है। और (मेध्यः) यज्ञाधिकारी तथा पवित्र (अभूः) हो गया है (परेतम्) परले आश्रम में आए हुए (त्वा) तुझ को (पितरः) आश्रमवासी पितर (प्रति जानन्तु) जान लें, और आश्रम में प्रवेश की स्वीकृति प्रदान करें। हे आश्रम परिवर्तन करनेवाले ! (यथापरु) प्रत्येक अङ्ग-प्रत्यङ्ग की दृष्टि से (तन्वम्) अपने शरीर को, नए आश्रम में जाकर (संभरस्व) सम्यक् प्रकार से परिपुष्ट करते रहना। हे नवाश्रमवासिन्! (ब्रह्मणा) मन्त्रोक्त विधियों द्वारा मैं (ते) तेरे (गात्राणि) अङ्गों-प्रत्यङ्गो को (कल्पयामि) सामर्थ्ययुक्त करता हूँ।
टिप्पणी -
[मन्त्र में पुरोहित की उक्तियां हैं। वनस्थ या संन्यस्त हो जाने पर शरीर को अति तपश्चर्या द्वारा सुखाना न चाहिये। अपितु शरीर के अङ्गों-प्रत्यङ्गो की दृष्टि से शरीर का भरण-पोषण करना चाहिये, ताकि आश्रम के कर्तव्यों का पालन हो सके।]