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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 41
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
समि॑न्धते॒अम॑र्त्यं हव्य॒वाहं॑ घृत॒प्रिय॑म्। स वे॑द॒ निहि॑तान्नि॒धीन्पि॒तॄन्प॑रा॒वतो॑ग॒तान् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । इ॒न्ध॒ते॒ । अम॑र्त्यम् । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । घृ॒त॒ऽप्रिय॑म् । स: । वे॒द॒ । निऽहि॑तान् । नि॒ऽधीन् । पि॒तॄन् । परा॒ऽवत॑: । ग॒तान् ॥४.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
समिन्धतेअमर्त्यं हव्यवाहं घृतप्रियम्। स वेद निहितान्निधीन्पितॄन्परावतोगतान् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । इन्धते । अमर्त्यम् । हव्यऽवाहम् । घृतऽप्रियम् । स: । वेद । निऽहितान् । निऽधीन् । पितॄन् । पराऽवत: । गतान् ॥४.४१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 41
भाषार्थ -
संन्यासी तथा वानप्रस्थी (अमर्त्यम्) अमर अविनाशी, (हव्यवाहम्) भक्तिरसरूपी हवि को स्वीकार करनेवाले, (घृतप्रियम्) वीर्यवान् ऊर्ध्वरेता को चाहनेवाले परमेश्वराग्नि को (समिन्धते) हृदयों में संदीप्त करते हैं, प्रकट करते हैं। (सः) वह परमेश्वर (निहितान् निधीन्) मनुष्यों में निहित अर्थात् छिपी हुई योगजन्य विभूतियों को (वेद) जानता है। और उन (पितॄन्) पितरों को भी जानता है, पहिचानता है, जो कि गृहस्थ-जीवन त्याग कर (परावतः गतान्) दूर परे चले गये हैं।
टिप्पणी -
[मन्त्र में अग्नि का विशेषण है “अमर्त्य”। प्राकृतिक अग्नि मर्त्य है, विनाशी है। परमेश्वराग्नि अमर्त्य है, अमर है, अविनाशी है। साथ ही “वेद” पद द्वारा अग्नि को ज्ञानी कहा है। प्राकृतिक अग्नि ज्ञानी नहीं। परमेश्वर ही जानता है कि किस मनुष्य में कौन-कौन सी योगजन्य विभूतियाँ निहित हैं। इसलिए इन विभूतियों की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए। घृतप्रियम्, घृत=रेतः=वीर्य। यथा—“रेतः कृत्वाज्यं देवाः पुरुषममाविशन्” (अथर्व० ११.८.२९)। ब्रह्मचर्य मोक्ष तथा परमेश्वर की प्राप्ति में साधन है। “श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्” (योग १.२०) तथा “अहिंसासत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः” (योग २.३०)।]