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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 63
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - स्वराट् आस्तार पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
परा॑ यात पितरःसो॒म्यासो॑ गम्भी॒रैः प॒थिभिः॑ पू॒र्याणैः॑। अधा॑ मासि॒ पुन॒रा या॑त नोगृ॒हान्ह॒विरत्तुं॑ सुप्र॒जसः॑ सु॒वीराः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । या॒त॒ । पि॒त॒र॒: । सो॒म्यास॑: । ग॒म्भी॒रै: । प॒थिऽभि॑: । पू॒:ऽयानै॑: । अध॑ । मा॒सि । पुन॑: । आ । या॒त॒ । न॒: । गृ॒हान् । ह॒वि: । अत्तु॑म् । सु॒ऽप्र॒जस॑: । सु॒ऽवीरा॑: ॥४.६३॥
स्वर रहित मन्त्र
परा यात पितरःसोम्यासो गम्भीरैः पथिभिः पूर्याणैः। अधा मासि पुनरा यात नोगृहान्हविरत्तुं सुप्रजसः सुवीराः ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । यात । पितर: । सोम्यास: । गम्भीरै: । पथिऽभि: । पू:ऽयानै: । अध । मासि । पुन: । आ । यात । न: । गृहान् । हवि: । अत्तुम् । सुऽप्रजस: । सुऽवीरा: ॥४.६३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 63
भाषार्थ -
(सोम्यासः) हे सोम्य स्वभाव वाले, मधुर स्वभाव वाले (पितरः) पितरो! (पूर्याणैः) नागरिक रथों द्वारा (गम्भीरैः) गहन और दुर्गम मार्गों से आप (परायात) अपने दूर-दूर के स्थानों में चले जाइए। (अधा) तदनन्तर (मासि) मास के पश्चात् (पुनः) फिर (नः गृहान्) हमारे घरों में (आ यात) आइए (हविः अत्तुम्) हविष्यान्नों को खाने के लिए। आपके सदुपदेशों द्वारा (सुप्रजसः) उत्तम सन्तानोंवाले (सुवीराः) और श्रेष्ठ वीरों वाले, या हम स्वयं श्रेष्ठ वीर हों।
टिप्पणी -
[यानों अर्थात् रथों द्वारा आना-जाना, और मास-मास के बाद आना-जाना, गृहस्थों के घर आकर हविष्यान्न का खाना, जीवित पितरों में ही सम्भव है।]