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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरी
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
य॒ज्ञ ए॑ति॒वित॑तः॒ कल्प॑मान ईजा॒नम॒भि लो॒कं स्व॒र्गम्। तम॒ग्नयः॒ सर्व॑हुतं जुषन्तांप्राजाप॒त्यं मेध्यं॑ जा॒तवे॑दसः। शृ॒तं कृ॒ण्वन्त॑ इ॒हमाव॑ चिक्षिपन् ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञ: । ए॒ति॒ । विऽत॑त: । कल्प॑मान: । ई॒जा॒नम् । अ॒भि । लो॒कम् । स्व॒:ऽगम् । तम् । अ॒ग्नय॑: । सर्व॑ऽहुतम् । जु॒ष॒न्ता॒म् । प्रा॒जा॒ऽप॒त्यम् । मेध्य॑म् । जा॒तऽवे॑दस: । शृ॒तम् । कृ॒ण्वन्त॑: । इ॒ह । मा । अव॑ । चि॒क्षि॒प॒न् ॥४.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञ एतिविततः कल्पमान ईजानमभि लोकं स्वर्गम्। तमग्नयः सर्वहुतं जुषन्तांप्राजापत्यं मेध्यं जातवेदसः। शृतं कृण्वन्त इहमाव चिक्षिपन् ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञ: । एति । विऽतत: । कल्पमान: । ईजानम् । अभि । लोकम् । स्व:ऽगम् । तम् । अग्नय: । सर्वऽहुतम् । जुषन्ताम् । प्राजाऽपत्यम् । मेध्यम् । जातऽवेदस: । शृतम् । कृण्वन्त: । इह । मा । अव । चिक्षिपन् ॥४.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(विततः) समग्र गृहस्थकाल में फैला हुआ (यज्ञः) प्राजापत्य यज्ञ (कल्पमानः) सामर्थ्यवान् होकर (ईजानम्) यज्ञकर्त्ता को (स्वर्गम्) विशेष सुख और सुख के साधनभूत (लोकम्) लोक अर्थात् आश्रम की (अभि एति) ओर ले जाता है, तदभिमुख कर देता है। (जातवेदसः अग्नयः) उपर्युक्त जातवेदस अग्नियाँ, (सर्वहुतम्) जिसमें सर्वस्व आहुतिरूप में समर्पित कर दिया है, ऐसे (प्राजापत्यं मेध्यम्) पवित्र प्राजापत्य-यज्ञ का (जुषन्ताम्) सेवन करें। और वे अग्नियाँ (तम्) उस सद्गृहस्थ को (शृतं कृण्वन्तः) प्राजापत्य व्रत में परिपक्क अर्थात् सुदृढ़ करती हुई, (इह) इस गृहस्थ जीवन में उसे (माव चिक्षिपन्) निन्दा का पात्र न होने दें।
टिप्पणी -
[ईजानम्=यज्+कानच्। “ईजानम्” प्रयोग भूतार्थक है। अर्थात् जिस ने अपने गृहस्थकाल में प्राजापत्य-मेध्य नियमपूर्वक कर लिया है, वह अगले आश्रम अर्थात् संन्यास का अधिकारी है। संन्यास ग्रहण करते समय “प्राजापत्येष्टि” करनी होती है, जो इस बात को सूचित करती है कि अमुक व्यक्ति ने गृहस्थ में प्राजापत्य-मेध्य नियमपूर्वक किया है। साथ ही संन्यास ग्रहण करते समय “सर्ववेदस” अर्थात् निज सर्व सम्पत्ति का परित्याग करना होता है। प्राजापत्येष्टि तथा सर्ववेदस आहुति का वर्णन यजुर्वेद-ब्राह्मण में हुआ है। यथा— “प्राजापत्यां निरूप्येष्ट तस्यां सर्ववेदसं हुत्वा ब्राह्मण प्रव्रजेत्”। तथा— “प्राजापत्यां निरूप्येष्ट सर्ववेदसदक्षिणाम्। आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात्॥” (मनु॰ ६.३८)।। मन्त्र में “सर्वहुतम्” पद के द्वारा “सर्ववेदसं हुत्वा” का ही निर्देश है। पूर्ण वैराग्य की अवस्था में गृहस्थ से सीधे संन्यास ग्रहण करने की भी विधि है। यथा—“यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत् वनाद्वा गृहाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्”।]