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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 35
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    वै॑श्वान॒रेह॒विरि॒दं जु॑होमि साह॒स्रं श॒तधा॑र॒मुत्स॑म्। स बि॑भर्ति पि॒तरं॑पिताम॒हान्प्र॑पिताम॒हान्बि॑भर्ति॒ पिन्व॑मानः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒रे । ह॒वि: । इ॒दम् । जु॒हो॒मि॒ । सा॒ह॒स्रम् । श॒तऽधा॑रम् । उत्स॑म् । स: । बि॒भ॒र्ति॒ । पि॒तर॑म् । पि॒ता॒म॒हान् । प्र॒ऽपि॒ता॒म॒हान् । बि॒भ॒र्ति॒ । पिन्व॑मान: ॥४.३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरेहविरिदं जुहोमि साहस्रं शतधारमुत्सम्। स बिभर्ति पितरंपितामहान्प्रपितामहान्बिभर्ति पिन्वमानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानरे । हवि: । इदम् । जुहोमि । साहस्रम् । शतऽधारम् । उत्सम् । स: । बिभर्ति । पितरम् । पितामहान् । प्रऽपितामहान् । बिभर्ति । पिन्वमान: ॥४.३५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 35

    भाषार्थ -
    (साहस्रम्) हजारों का पालन-पोषण करने वाले, (शतधारम्) सैकड़ों दुग्धधाराओं वाले, (उत्सम्) दुग्ध के कूपरूप (इदम्) इस गोधन को, (वैश्वानरे) सब नरनारियों के हितैषी परमेश्वर के प्रसादन के निमित्त, मैं (हविः) हविरूप में (जुहोमि) समर्पित करता हूँ। क्योंकि (सः) वही वैश्वानर (पिन्वमानः) प्रसन्न होकर (पितरं पितामहान्) मेरे पिता और पितामहों का (बिभर्ति) भरण-पोषण करता है, और (प्रपितामहान्) प्रपितामहों का (बिभर्ति) भरण-पोषण करता है।

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