Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अङ्गि॑रसा॒मय॑नं॒पूर्वो॑ अ॒ग्निरा॑दि॒त्याना॒मय॑नं॒ गार्ह॑पत्यो॒ दक्षि॑णाना॒मय॑नं दक्षिणा॒ग्निः। म॑हि॒मान॑म॒ग्नेर्विहि॑तस्य॒ ब्रह्म॑णा॒ सम॑ङ्गः॒ सर्व॒ उप॑ याहि श॒ग्मः॥
स्वर सहित पद पाठअङ्गि॑रसाम् । अय॑नम् । पूर्व॑: । अ॒ग्नि । आ॒दि॒त्याना॑म् । अय॑नम् । गार्ह॑ऽपत्य । दक्षि॑णानाम् । अय॑नम् । द॒क्षि॒ण॒ऽअ॒ग्नि: । म॒हि॒मान॑म् । अ॒ग्ने: । विऽहि॑तस्य । ब्रह्म॑णा । सम्ऽअ॑ङ्ग: । सर्व॑: । उप॑ । या॒हि॒ । श॒ग्म: ॥४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अङ्गिरसामयनंपूर्वो अग्निरादित्यानामयनं गार्हपत्यो दक्षिणानामयनं दक्षिणाग्निः। महिमानमग्नेर्विहितस्य ब्रह्मणा समङ्गः सर्व उप याहि शग्मः॥
स्वर रहित पद पाठअङ्गिरसाम् । अयनम् । पूर्व: । अग्नि । आदित्यानाम् । अयनम् । गार्हऽपत्य । दक्षिणानाम् । अयनम् । दक्षिणऽअग्नि: । महिमानम् । अग्ने: । विऽहितस्य । ब्रह्मणा । सम्ऽअङ्ग: । सर्व: । उप । याहि । शग्म: ॥४.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(अङ्गिरसाम्) अङ्गिराओं अर्थात् प्राणायामाभ्यासियों का (अयनम्) मार्ग है (पूर्वः अग्निः) शरीर के पूर्व भाग में स्थित नासिकास्थ प्राणाग्नि, श्वासोच्छ्वासरूपी अग्नि (आदित्यानाम्) आदित्य ब्रह्मचारियों का (अयनम्) मार्ग है (गार्हपत्यः अग्निः) गृहपति बनने का साधनभूत वीर्याग्नि, (दक्षिणानाम्) यज्ञों में दक्षिणाएँ देने वाले सद्गृहस्थों का (अयनम्) मार्ग है (दक्षिणाग्निः) शरीर के दक्षिण भाग में स्थित पचनाग्नि। हे मनुष्य! (ब्रह्मणा) ब्रह्म द्वारा (विहितस्य) विशेषतया स्थापित (अग्नेः) इन अग्नियों की (महिमानम्) महिमा को (उप याहि) उपसनापूर्वक तू प्राप्त हो। और (समङ्गः) अंगों से संयुक्त हुआ, (सर्वः) और सम्पूर्णाङ्ग होकर तू (शग्मः) शान्ति और सुख को प्राप्त हो।
टिप्पणी -
[अङ्गिरसाम्=“आङ्गिरसः अङ्गानां हि रसः, प्राणो वा अङ्गानां रसः” (बृह० उप० १.३.१९)। प्राण यतः शरीर के पूर्व भाग अर्थात् नासिका तथा मुख में हैं, अतः इस प्राणाग्नि को “पूर्वाग्नि” कहा है। यह प्राण अग्नि है, क्योंकि प्राणों तथा प्राणयाम के अभ्यास से इन्द्रियों के मल दग्ध हो जाते हैं। “तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्” (मनु० ६.७१)। यह नासिका-प्राण जब मुख में उतरता है, तब इसे “अयास्य” प्राण कहते हैं। अयते आस्ये इति अयास्यः। पूर्वः=in front of (आप्टे)। आदित्यानाम्=आदित्य ब्रह्मचारियों का अयन अर्थात् मार्ग है “वीर्याग्नि”, जिसे गार्हपत्य अग्नि कहा है। वीर्य अग्निरूप है, चूंकि वीर्यवानों के मुख वीर्यरक्षा के कारण तेजस्वी हो जाते हैं। वीर्य द्वारा मनुष्य गृहपति बनता है। दक्षिणानाम्=यज्ञों में दक्षिणा देने वाले गृहस्थियों का अयन अर्थात् जीवनमार्ग है “दक्षिणाग्नि”। “यस्मिन् पचन्ति स दक्षिणाग्निः” (अथर्व० ९.६(२).१३)। अर्थात् जिस में पकाते हैं, वह दक्षिणाग्नि है। आध्यात्मिक दृष्टि में अन्न-पाचक अग्नि दक्षिणाग्नि है। अन्नपाचक अग्नि शरीर के दक्षिण भाग में है। उदर का मुख, डिओडीनम, आन्तें, यकृत् ये पाचक अंग शरीर के दक्षिण भाग में विद्यमान हैं। गृहस्थियों को पौष्टिक अन्न खाना चाहिए, और उसे पचा सकने की शक्ति प्राप्त करनी चाहिए। तभी वे गृहस्थ धर्म का पालन कर सकते हैं। ब्रह्मणा=ब्रह्म ने मनुष्य को उपर्युक्त तीन अग्नियाँ प्रदान की हैं। इनके स्वस्थ रहने पर मनुष्य सर्वाङ्गपुष्टि प्राप्त कर शान्ति और सुख का भागी बनता है।]