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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 67
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
शुम्भ॑न्तांलो॒काः पि॑तृ॒षद॑नाः पितृ॒षद॑ने त्वा लो॒क आ सा॑दयामि ॥
स्वर सहित पद पाठशुम्भ॑न्ताम् । लो॒का: । पि॒तृ॒ऽसद॑ना:। पि॒तृ॒ऽसद॑ने । त्वा॒ । लो॒के । आ । सा॒द॒या॒मि॒ ॥४.६७॥
स्वर रहित मन्त्र
शुम्भन्तांलोकाः पितृषदनाः पितृषदने त्वा लोक आ सादयामि ॥
स्वर रहित पद पाठशुम्भन्ताम् । लोका: । पितृऽसदना:। पितृऽसदने । त्वा । लोके । आ । सादयामि ॥४.६७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 67
भाषार्थ -
(पितृषदनाः) पितर अर्थात् पिता पितामह और प्रपितामह जहाँ रहते हैं, वे (लोकाः) दर्शनीय आश्रम (शुम्भन्ताम्) पितरों के निवास तथा उद्यान आदि द्वारा सदा सुशोभित रहें। हे पिता! (पितृषदने) पितरों के रहने के ऐसे (लोके) दर्शनीय आश्रम में (त्वा) आपको (आ सादयामि) मैं पुत्र स्थापित करता हूँ। आपके निवास के लिए सदन का निर्माण करवाता हूँ॥ ६७॥