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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 50
एयम॑ग॒न्दक्षि॑णाभद्र॒तो नो॑ अ॒नेन॑ द॒त्ता सु॒दुघा॑ वयो॒धाः। यौव॑ने जी॒वानु॑पपृञ्च॒ती ज॒रापि॒तृभ्य॑ उपसं॒परा॑णयादि॒मान् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒यम् । अ॒ग॒न् । दक्षि॑णा । भ॒द्र॒त: । न॒: । अ॒नेन॑ । द॒त्ता । सु॒ऽदुघा॑ । व॒य॒:ऽधा: । यौव॑ने । जी॒वान् । उ॒प॒ऽपृञ्च॑ती । ज॒रा । पि॒तृऽभ्य॑: । उ॒प॒ऽसंप॑रानयात् । इ॒मान् ॥४.५०॥
स्वर रहित मन्त्र
एयमगन्दक्षिणाभद्रतो नो अनेन दत्ता सुदुघा वयोधाः। यौवने जीवानुपपृञ्चती जरापितृभ्य उपसंपराणयादिमान् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इयम् । अगन् । दक्षिणा । भद्रत: । न: । अनेन । दत्ता । सुऽदुघा । वय:ऽधा: । यौवने । जीवान् । उपऽपृञ्चती । जरा । पितृऽभ्य: । उपऽसंपरानयात् । इमान् ॥४.५०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 50
भाषार्थ -
पुरोहित कहता है कि (नः) हमें अर्थात् मुझे (भद्रतः) मृतव्यक्ति के भद्र सम्बन्धी से (इयम्) यह (दक्षिणा) अन्त्येष्टि संस्कार की दक्षिणा (अगन्) प्राप्त हुई है। (अनेन) इस भद्र सम्बन्धी द्वारा (दत्ता) दी गई दक्षिणा (सुदुघा) उत्तम फल वाली है, और (वयोधाः) आयु तथा अन्न प्रदान करनेवाली है। जब (यौवने) युवाकाल में (जीवान्) जीवितों के साथ (जरा) बुढ़ापा अर्थात् आलस्य निष्क्रियता आदि (उपपृञ्चती) गहरा सम्पर्क कर लेते हैं, तब बुढ़ापा (इमान्) इन जीवितों को (पितृभ्यः) जीवित पितरों से पृथक् कर (उप संपराणयात्) मृत्यु के समीप शीघ्र ले जाता है।
टिप्पणी -
[उप संपराणयात् = उप (समीप) + सम+परा+नयात्। वयः= अन्न (निघं० २।७ ); आयु (प्रसिद्ध)। "न सांपरायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्" (कठ० उप० अ० १, बल्ली २, खं० ६)। अथवा - जब यौवनकाल में जीवितों के साथ (जरा) स्तुति वा भक्ति गहरा सम्पर्क कर लेती है, तब स्तुति वा भक्ति इन जीवितों को वनस्थ तथा संन्यस्त पितरों के प्रति, उनके समीप शीघ्र अगले आश्रमों में पहुंचा देती है। यथा- यदहरेव विरजेत् तवहरेव प्रव्रजेत् गृहाद्वा वनाद् वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्" (जाबालोपनिषद्)। जरा-स्तुति; यथा जरति जरते= अर्चतिकर्मा (निघं० ३।१४); जरिता स्तोतृनाम (निघं० ३।१६)। तथा "वयमिन्द्र त्वायवो हविष्मन्तो जरामहे" (अथर्व० २०।२३।७) जरामहे = स्तुमः।]