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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 47
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
सर॑स्वति॒ यास॒रथं॑ य॒याथो॒क्थैः स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती। स॑हस्रा॒र्घमि॒डोअत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाय धेहि ॥
स्वर सहित पद पाठसर॑स्वति । या । स॒ऽरथ॑म् । य॒याथ॑ । उ॒क्थै: । स्व॒धाभि॑: । दे॒वि॒ । पि॒तृऽभि॑: । मद॑न्ती । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒र्घम् । इ॒ड: । अत्र॑ । भा॒गम् । रा॒य: । पोष॑म् । यज॑मानाय । धे॒हि॒ ॥४.४७॥
स्वर रहित मन्त्र
सरस्वति यासरथं ययाथोक्थैः स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती। सहस्रार्घमिडोअत्र भागं रायस्पोषं यजमानाय धेहि ॥
स्वर रहित पद पाठसरस्वति । या । सऽरथम् । ययाथ । उक्थै: । स्वधाभि: । देवि । पितृऽभि: । मदन्ती । सहस्रऽअर्घम् । इड: । अत्र । भागम् । राय: । पोषम् । यजमानाय । धेहि ॥४.४७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 47
भाषार्थ -
(सरस्वति) हे ज्ञानमयि, सरसहृदये, जगन्मातः! (या) जो आप (सरथम्) जीवात्मा के साथ एक हृदयरथ में, या शरीररथ में आरूढ़ हुई (ययाथ) सक्रिय हुई हैं, और (उक्थैः) वैदिक सूक्तों द्वारा सदुपदेश दे कर (स्वधाभिः) तथा आत्म-धारण-पोषण योग्य सात्त्विक अन्न देकर, तथा (पितृभिः) रक्षा तथा पालन करनेवाले माता-पिता आदि सम्बन्धी देकर (मदन्ती) हमें आनन्दित तथा मुदित-प्रमुदित कर रही हैं, वह आप (अत्र) इस हमारे पार्थिव जीवन में (यजमानाय) प्रत्येक यजन-कर्त्ता के लिए (इडः) वैदिक स्तुतियों में कथित (सहस्रार्घम्) महामूल्य तथा (भागम्) सेवनीय (रायस्पोषम्) सांसारिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति की परिपुष्टि (धेहि) प्रदान करें।
टिप्पणी -
[जगन्माता प्रत्येक के हृदय में तथा शरीर में बसी हुई उसके शारीरिक अङ्ग-प्रत्यङ्ग को सक्रिय कर रही है। श्वास-प्रश्वास, हृदय की गति, पाचनक्रिया आदि परमेश्वररूप जगन्माता द्वारा संचालित हो रहे हैं। यह तब तक ही जब तक कि जीवात्मा इस शरीर के साथ कर्मों द्वारा बन्धा हुआ है। महामूल्य सांसारिक सम्पत्ति=स्वास्थ्य, जीवन की पवित्रता, यश, तेज, सद्बुद्धि, प्रज्ञा आदि। भागम्=भज सेवायाम्।]