Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
दे॒वाय॒ज्ञमृ॒तवः॑ कल्पयन्ति ह॒विः पु॑रो॒डाशं॑ स्रु॒चो य॑ज्ञायु॒धानि॑।तेभि॒र्याहि॑ प॒थिभि॑र्देव॒यानै॒र्यैरी॑जा॒नाः स्व॒र्गं य॑न्ति लो॒कम् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वा: । य॒ज्ञम् । ऋ॒तव॑: । क॒ल्प॒य॒न्ति॒ । ह॒वि: । पु॒रो॒डाश॑म् । स्रु॒च: । य॒ज्ञ॒ऽआ॒यु॒धानि॑ । तेभि॑: । या॒हि॒ । प॒थिऽभि॑: । दे॒व॒ऽयानै॑: । यै: । ई॒जा॒ना: । स्व॒:ऽगम् । यन्ति॑ । लो॒कम् ॥४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
देवायज्ञमृतवः कल्पयन्ति हविः पुरोडाशं स्रुचो यज्ञायुधानि।तेभिर्याहि पथिभिर्देवयानैर्यैरीजानाः स्वर्गं यन्ति लोकम् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवा: । यज्ञम् । ऋतव: । कल्पयन्ति । हवि: । पुरोडाशम् । स्रुच: । यज्ञऽआयुधानि । तेभि: । याहि । पथिऽभि: । देवऽयानै: । यै: । ईजाना: । स्व:ऽगम् । यन्ति । लोकम् ॥४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(देवाः) याज्ञिकदेव अर्थात् ऋत्विक, और (ऋतवः) भिन्न-भिन्न ऋतुएं (यज्ञम) नाना यज्ञों का (कल्पयन्ति) निर्माण करते हैं, (हविः पुरोडाशं स्रुचः यज्ञायुधानि) अर्थात् भिन्न-भिन्न हवियों का, चावल के आटे से बनी टिक्की का, अग्नि में घी की आहुति डालने के चमचों का, तथा यज्ञों के अन्य नानाविध उपकरणों का। हे यजमान! (देवयानैः) याज्ञिक देवों के (तेभिः) उन (पथिभिः) मार्गों द्वारा तू (स्वर्गं लोकम्) स्वर्ग लोक को (याहि) प्राप्त हो, (यैः) जिन यज्ञसाधनों या मार्गों द्वारा (ईजानाः) यज्ञ करनेवाले यजमान (स्वर्ग लोकं यन्ति) स्वर्ग लोक को निश्चित प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी -
[ऋतवः=भिन्न-भिन्न ऋतु के अनुसार किये जानेवाले चातुर्मास्य आदि यज्ञ। देवाः=यज्ञों की विधियों का निर्माण करनेवाले, यज्ञविद्याओं के वेत्ता लोग। मन्त्र १ और २ में पितृयाण और देवयान का वर्णन वैदिक है। उपनिषत्काल में इनके स्वरूपों का वर्णन भिन्न प्रकार से हुआ है। स्वर्ग=“स्वर्गनाम सुखविशेषभोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है” (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश) (४२) सत्यार्थप्रकाश।)] यज्ञ द्वारा वृष्टि, ओषधि-अन्नों की परिपुष्टि, रोगनाश, स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि होने पर सुखविशेष होता है।]