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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 12
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - महाबृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    शम॒ग्नयः॒समि॑द्धा॒ आ र॑भन्तां प्राजाप॒त्यं मेध्यं॑ जा॒तवे॑दसः। शृ॒तं कृ॒ण्वन्त॑ इ॒हमाव॑ चिक्षिपन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम् । अ॒ग्नय॑: । सम्ऽइ॑ध्दा: । आ । र॒भ॒न्ता॒म् । प्रा॒जा॒ऽप॒त्यम् । मेध्य॑म् । जा॒तऽवे॑दस: । शृ॒तम् । कृ॒ण्वन्त॑: । इ॒ह । मा । अव॑ । चि॒क्षि॒पा॒न् ॥४.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शमग्नयःसमिद्धा आ रभन्तां प्राजापत्यं मेध्यं जातवेदसः। शृतं कृण्वन्त इहमाव चिक्षिपन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम् । अग्नय: । सम्ऽइध्दा: । आ । रभन्ताम् । प्राजाऽपत्यम् । मेध्यम् । जातऽवेदस: । शृतम् । कृण्वन्त: । इह । मा । अव । चिक्षिपान् ॥४.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 12

    पदार्थ -

    (समिद्धाः) यथाविधिप्रकाशित की हुई और (जातवेदसः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान (अग्नयः)अग्नियाँ (प्राजापत्यम्) प्रजापति परमात्मा को देवता माननेवाले (मेध्यम्) पवित्रपुरुष को (शम्) शान्ति के साथ (आ) सब ओर से (रभन्ताम्) उत्साही करें। और [उस को] (इह) वहाँ (शृतम्) परिपक्व [दृढ़ स्वभाव] (कृण्वन्तः) करती हुयीं [अग्नियाँ] (मा अव चिक्षिपन्) कभी न गिरने देवें ॥१२॥

    भावार्थ -

    जो मनुष्य यज्ञ मेंपूर्वोक्त तीनों अग्नियों को यथाविधि प्रज्वलित करते हैं, वे ब्राह्मण अपने आचरणको शुद्ध कर के पक्के ज्ञानी होकर संसार में नीचे नहीं गिरते ॥१२॥

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