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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ती॒र्थैस्त॑रन्तिप्र॒वतो॑ म॒हीरिति॑ यज्ञ॒कृतः॑ सु॒कृतो॒ येन॒ यन्ति॑। अत्रा॑दधु॒र्यज॑मानायलो॒कं दिशो॑ भू॒तानि॒ यदक॑ल्पयन्त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ती॒र्थै: । त॒र॒न्ति॒ । प्र॒ऽवत॑: । म॒ही: । इति॑ । य॒ज्ञ॒ऽकृत॑: । सु॒ऽकृत॑: । येन॑ । यन्ति॑ । अत्र॑ । अ॒द॒धु॒: । यज॑मानाय । लो॒कम् । दिश॑: । भू॒तानि॑ । यत् । अक॑ल्पयन्त ॥४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तीर्थैस्तरन्तिप्रवतो महीरिति यज्ञकृतः सुकृतो येन यन्ति। अत्रादधुर्यजमानायलोकं दिशो भूतानि यदकल्पयन्त ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तीर्थै: । तरन्ति । प्रऽवत: । मही: । इति । यज्ञऽकृत: । सुऽकृत: । येन । यन्ति । अत्र । अदधु: । यजमानाय । लोकम् । दिश: । भूतानि । यत् । अकल्पयन्त ॥४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (तीर्थैः) तरने केसाधनों [शास्त्रों वा घाटों आदि] द्वारा [मनुष्य] (प्रयतः) बहुत गतियोंवाली (महीः) बड़ी [विपत्तियों वा नदियों] को [उस प्रकार से] (तरन्ति) पार करते हैं, (येन) जिससे (यज्ञकृतः) यज्ञ करनेवाले, (सुकृतः) सुकर्मी लोग (यन्ति) चलतेहैं−(इति) ऐसा [निश्चय है]। (अत्र) यहाँ [संसार में] (यजमानाय) यजमान के लिये (लोकम्) स्थान (अदधुः) उन [पुण्यात्माओं] ने दिया है, (यत्) जब कि (दिशः) दिशाओंको (भूतानि) सत्तावाले प्राणियों ने (अकल्पयन्त) समर्थ बनाया है ॥७॥

    भावार्थ - मनुष्य विद्वान्धर्मात्माओं के वेदविहित मार्ग पर चल कर विपत्तियों से पार होवें। धर्मात्मालोग ही संसार में मान्य होते हैं, क्योंकि वे पुरुषार्थी जीव सब दिशाओं कोउपकारी बनाते हैं ॥७॥

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