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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 36
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    स॒हस्र॑धारंश॒तधा॑र॒मुत्स॒मक्षि॑तं व्य॒च्यमा॑नं सलि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे। ऊर्जं॒दुहा॑न॒मन॑पस्पुरन्त॒मुपा॑सते पि॒तरः॑ स्व॒धाभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑ऽधारम् । श॒तऽधा॑रम् । उत्स॑म् । अक्षि॑तम् । वि॒ऽअ॒च्यमा॑नम् । स॒लि॒लस्य॑ । पृ॒ष्ठे । ऊर्ज॑म् । दुहा॑नम् । अ॒न॒प॒ऽस्फुर॑न्तम् । उप॑ । आ॒स॒ते॒ । पि॒तर॑: । स्व॒धाभि॑: ॥४.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रधारंशतधारमुत्समक्षितं व्यच्यमानं सलिलस्य पृष्ठे। ऊर्जंदुहानमनपस्पुरन्तमुपासते पितरः स्वधाभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽधारम् । शतऽधारम् । उत्सम् । अक्षितम् । विऽअच्यमानम् । सलिलस्य । पृष्ठे । ऊर्जम् । दुहानम् । अनपऽस्फुरन्तम् । उप । आसते । पितर: । स्वधाभि: ॥४.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 36

    पदार्थ -
    (सहस्रधारम्) सहस्रोंप्रकार से पोषण करनेवाले, (शतधारम्) दूध की सैकड़ों धाराओंवाले, (अक्षितम्) नघटनेवाले, (सलिलस्य) समुद्र की (पृष्ठे) पीठपर (व्यच्यमानम्) फैले हुए [अर्थात्जलसमान बहुत होनेवाले], (ऊर्जम्) बलकारक रस [दूध घी आदि] (दुहानम्) देनेवाले (अनपस्फुरन्तम्) कभी न चलायमान होनेवाले (उत्सम्) स्रोते [अर्थात् गौ रूपपदार्थ] को (पितरः) पितर [पिता आदि मान्य] लोग (स्वधाभिः) आत्मधारण शक्तियों केसाथ (उप आसते) सेवते हैं ॥३६॥

    भावार्थ - जो मनुष्य अपनाशारीरिक और आत्मिक बल बढ़ाना चाहें, वे गौ की रक्षा करके दूध, घी आदि का सेवनकरें ॥३६॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध कुछ भेद से यजुर्वेद में है−१३।४९ औरउत्तरार्द्ध के लिये-मन्त्र ३० ऊपर देखो ॥

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