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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 14
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ई॑जा॒नश्चि॒तमारु॑क्षद॒ग्निं नाक॑स्य पृ॒ष्ठाद्दिव॑मुत्पति॒ष्यन्। तस्मै॒ प्रभा॑ति॒ नभ॑सो॒ ज्योति॑षीमान्त्स्व॒र्गः पन्थाः॑ सु॒कृते॑ देव॒यानः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒जा॒न: । चि॒तम् । आ । अ॒रु॒क्ष॒त् । अ॒ग्निम् । नाक॑स्य । पृ॒ष्ठात् । दिव॑म् । उ॒त्ऽप॒ति॒ष्यन् । तस्मै॑ । प्र । भा॒ति॒। नभ॑स: । ज्योति॑षीऽमान् । स्व॒:ऽग: । पन्था॑ । सु॒ऽकृते॑ । दे॒व॒ऽयान॑: ॥४.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईजानश्चितमारुक्षदग्निं नाकस्य पृष्ठाद्दिवमुत्पतिष्यन्। तस्मै प्रभाति नभसो ज्योतिषीमान्त्स्वर्गः पन्थाः सुकृते देवयानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईजान: । चितम् । आ । अरुक्षत् । अग्निम् । नाकस्य । पृष्ठात् । दिवम् । उत्ऽपतिष्यन् । तस्मै । प्र । भाति। नभस: । ज्योतिषीऽमान् । स्व:ऽग: । पन्था । सुऽकृते । देवऽयान: ॥४.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 14

    पदार्थ -
    (ईजानः) यज्ञ करचुकनेवाले पुरुष ने (नाकस्य) अत्यन्त सुख के (पृष्ठात्) ऊपरी स्थान से (दिवम्)प्रकाशस्वरूप परमात्मा की ओर (उत्पतिष्यन्) चढ़ने की इच्छा करके, (चितम्) चुनीहुई (अग्निम्) अग्नि को (आ) सब ओर (अरुक्षत्) प्रकट किया है। (तस्मै) उस (सुकृते) सुकृती पुरुष के लिये (नभसः) आकाश से [खुले स्थान से] (ज्योतिषीमान्)ज्योतिष्मती बुद्धिवाला (स्वर्गः) सुख पहुँचानेवाला, (देवयानः) विद्वानों केचलने योग्य (पन्थाः) मार्ग (प्र भाति) चमकता जाता है ॥१४॥

    भावार्थ - जब मनुष्य अत्यन्त सुखसे परमात्मा की प्राप्ति में ऊँचा होकर अपना कर्तव्यरूप यज्ञ पूरा कर चुकता है, उसकी बुद्धि ऐसी चमकती है, जैसे सूर्य खुले निर्मल आकाश में ॥१४॥

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