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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - पञ्चपदा शक्वरी छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ध्रुव॒ आ रो॑हपृथि॒वीं वि॒श्वभो॑जसम॒न्तरि॑क्षमुप॒भृदा क्र॑मस्व। जुहु॒ द्यां ग॑च्छ॒ यज॑मानेनसा॒कं स्रु॒वेण॑ व॒त्सेन॒ दिशः॒ प्रपी॑नाः॒ सर्वा॑ धु॒क्ष्वाहृ॑णीयमानः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध्रुवे॑ । आ । रो॒ह॒ । पृ॒थि॒वीम् । वि॒श्वऽभो॑जसम् । अ॒न्तरि॑क्षम् । उ॒प॒ऽभृ॒त् । आ । क्र॒म॒स्व॒ । जुहु॑ । द्याम् । ग॒च्छ॒ । यज॑मानेन । सा॒कम् । स्रु॒वेण॑ । व॒त्सेन॑ । दिश॑: । प्रऽपी॑ना: । सर्वा॑: । धु॒क्ष्व॒ । अहृ॑णीयमान: ॥४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ध्रुव आ रोहपृथिवीं विश्वभोजसमन्तरिक्षमुपभृदा क्रमस्व। जुहु द्यां गच्छ यजमानेनसाकं स्रुवेण वत्सेन दिशः प्रपीनाः सर्वा धुक्ष्वाहृणीयमानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ध्रुवे । आ । रोह । पृथिवीम् । विश्वऽभोजसम् । अन्तरिक्षम् । उपऽभृत् । आ । क्रमस्व । जुहु । द्याम् । गच्छ । यजमानेन । साकम् । स्रुवेण । वत्सेन । दिश: । प्रऽपीना: । सर्वा: । धुक्ष्व । अहृणीयमान: ॥४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (ध्रुवे) हे निश्चलशक्ति ! [परमात्मा] (विश्वभोजसम्) सबको पालनेवाली (पृथिवीम्) पृथिवी में (आ)व्याप कर (रोह) प्रकट हो, (उपभृत्) हे समीप से धारण करनेवाली शक्ति ! (अन्तरिक्षम्) भीतर दिखाई देनेवाले आकाश में (आ) व्यापकर (क्रमस्व) प्राप्त हो। (जुहु) हे ग्रहण [आकर्षण] करनेवाली शक्ति ! (यजमानेन साकम्) यजमान [श्रेष्ठव्यवहार करनेवाले] के साथ (द्याम्) प्रकाशमान सूर्य को (गच्छ) प्राप्त हो, [हेयजमान !] (अहृणीयमानः) संकोच न करता हुआ तू (वत्सेन) बछड़े रूप (स्रुवेण) ज्ञानके साथ (सर्वाः) सब (प्रपीनाः) बढ़ती हुई (दिशः) दिशाओं को (धुक्ष्व) दुह ॥६॥

    भावार्थ - परमात्मा नीचे-ऊँचे औरमध्य लोक में व्याप कर धर्मात्मा पुरुष का सदा सहायक है, मनुष्य ज्ञान द्वारा सबदिशाओं से इस प्रकार उपकार लेवे, जैसे बछड़े को लगाकर गौ से दूध दुहते हैं॥६॥

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