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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 29
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    श॒तधा॑रंवा॒युम॒र्कं स्व॒र्विदं॑ नृ॒चक्ष॑स॒स्ते अ॒भि च॑क्षते र॒यिम्। ये पृ॒णन्ति॒ प्रच॒ यच्छ॑न्ति सर्व॒दा ते दु॑ह्रते॒ दक्षि॑णां स॒प्तमा॑तरम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तऽधा॑रम् । वा॒युम् । अ॒र्कम् । स्व॒:ऽविद॑म् । नृ॒ऽचक्ष॑स: । ते । अ॒भि । च॒क्ष॒ते॒ । र॒यिम् । ये । पृ॒णन्ति॑ । प्र । च॒ । यच्छ॑न्ति । स॒र्व॒दा । ते । दु॒ह्न॒ते॒ । दक्षि॑णाम् । स॒प्तऽमा॑तरम् ॥४.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतधारंवायुमर्कं स्वर्विदं नृचक्षसस्ते अभि चक्षते रयिम्। ये पृणन्ति प्रच यच्छन्ति सर्वदा ते दुह्रते दक्षिणां सप्तमातरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतऽधारम् । वायुम् । अर्कम् । स्व:ऽविदम् । नृऽचक्षस: । ते । अभि । चक्षते । रयिम् । ये । पृणन्ति । प्र । च । यच्छन्ति । सर्वदा । ते । दुह्नते । दक्षिणाम् । सप्तऽमातरम् ॥४.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 29

    पदार्थ -
    (ते) वे (नृचक्षसः)मनुष्यों के देखनेवाले पुरुष (रयिम् अभि) धन को सब ओर से पाकर (शतधारम्) सैकड़ोंप्रकार से धारण करनेवाले (वायुम्) सर्वव्यापक, (अर्कम्) पूजनीय (स्वर्विदम्) सुखपहुँचानेवाले परमेश्वर को (चक्षते) देखते हैं। (ये) जो पुरुष (सर्वदा) सर्वदा (पृणन्ति) [धन को] भरते हैं (च) और (प्र यच्छन्ति) [सुपात्रों को] देते हैं, (ते) वे लोग (सप्तमातरम्) सात [मन्त्र २८, मस्तक के सात गोलकों] द्वारा बनीहुई (दक्षिणाम्) प्रतिष्ठा को (दुह्रते) दुहते हैं [पाते हैं] ॥२९॥

    भावार्थ - पुरुषार्थी परोपकारीपुरुष परमात्मा के दिये धन को प्रत्येक स्थान में प्राप्त करके सुपात्रों कोदेकर यशस्वी होवें, क्योंकि जो पुरुष जितेन्द्रिय होकर धन बढ़ाते और सुपात्रोंको देते हैं, वे ही संसार में प्रतिष्ठा पाते हैं ॥२९॥यह मन्त्र कुछ भेद सेऋग्वेद में है−१०।१०७।४ ॥

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