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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 53
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - पुरोविराट सतः पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    प॒र्णोराजा॑पि॒धानं॑ चरू॒णामू॒र्जो बलं॒ सह॒ ओजो॑ न॒ आग॑न्। आयु॑र्जी॒वेभ्यो॒विद॑धद्दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र्ण: । राजा॑ । अ॒पि॒ऽधान॑म् । च॒रू॒णाम् । ऊ॒र्ज: । बल॑म् । सह॑ । ओज॑: । न॒: । आ । अ॒ग॒न् । आयु॑: । जी॒वेभ्य॑: । विऽद॑धत् । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय ॥४.५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्णोराजापिधानं चरूणामूर्जो बलं सह ओजो न आगन्। आयुर्जीवेभ्योविदधद्दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पर्ण: । राजा । अपिऽधानम् । चरूणाम् । ऊर्ज: । बलम् । सह । ओज: । न: । आ । अगन् । आयु: । जीवेभ्य: । विऽदधत् । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय ॥४.५३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 53

    पदार्थ -
    (पर्णः) पालन करनेवाला (राजा) राजा [सर्वशासक परमात्मा] (चरूणाम्) पात्र [समान लोकों] का (अपिधानम्)ढक्कन है, [उससे] (ऊर्जः) पराक्रम, (बलम्) बल, (सहः) उत्साह और (ओजः) प्रभाव [यहचार] (नः) हम को (आ अगन्) प्राप्त हुआ है। वह (जीवेभ्यः) जीवते हुए पुरुषों को (शतशारदाय) सौ वर्षवाले (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ आयु के लिये (आयुः) जीवन (विदधत्)विशेष कर के देवे ॥५३॥

    भावार्थ - सर्वनियन्तासर्वव्यापक जगदीश्वर अपनी न्यायव्यवस्था से मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम, मोक्षचार प्रकार के बल देता है, और वही जीवते हुए पुरुषार्थी का जीवन दीर्घ करता है॥५३॥

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