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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 31
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ए॒तत्ते॑ दे॒वःस॑वि॒ता वासो॑ ददाति॒ भर्त॑वे। तत्त्वं॑ य॒मस्य॒ राज्ये॒ वसा॑नस्ता॒र्प्यं चर॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तत् । ते॒ । दे॒व: । स॒वि॒ता । वास॑: । द॒दा॒ति॒ । भर्त॑वे । तत् । त्वम् । य॒मस्य॑ । राज्ये॑ । वसा॑न: । ता॒र्प्य॑म् । च॒र॒ ॥४.३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतत्ते देवःसविता वासो ददाति भर्तवे। तत्त्वं यमस्य राज्ये वसानस्तार्प्यं चर॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतत् । ते । देव: । सविता । वास: । ददाति । भर्तवे । तत् । त्वम् । यमस्य । राज्ये । वसान: । तार्प्यम् । चर ॥४.३१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 31

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (ते)तेरे लिये (देवः) व्यवहारकुशल (सविता) प्रेरक [काम चलानेवाला, कपड़ा बनानेवालापुरुष] (एतत्) यह (वासः) कपड़ा (भर्तवे) पहिरने को (ददाति) देता है। (त्वम्) तू (यमस्य) न्यायकारी राजा के (राज्ये) राज्य में (तार्प्यम्) तृप्तिकारक (तत्) उस [वस्त्र] को (वसानः) पहिरे हुए (चर) विचर ॥३१॥

    भावार्थ - न्यायी राजा के राज्यमें गाय बैल आदि के उपकार से [मन्त्र ३०] वस्त्रकार आदि लोग वस्त्र आदि बनाकरमनुष्यों का उपकार करते हैं ॥३१॥

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