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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 87
    सूक्त - पितरगण देवता - चतुष्पदा शङकुमती उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    य इ॒ह पि॒तरो॑जी॒वा इ॒ह व॒यं स्मः॑। अ॒स्माँस्तेऽनु॑ व॒यं तेषां॒ श्रेष्ठा॑ भूयास्म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । इ॒ह । पि॒तर॑: । जी॒वा: । इ॒ह । व॒यम् । स्म॒: । अ॒स्मान् । ते । अनु॑ । व॒यम् । तेषा॑म् । श्रेष्ठा॑: । भू॒या॒स्म॒ ॥४.८७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य इह पितरोजीवा इह वयं स्मः। अस्माँस्तेऽनु वयं तेषां श्रेष्ठा भूयास्म ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । इह । पितर: । जीवा: । इह । वयम् । स्म: । अस्मान् । ते । अनु । वयम् । तेषाम् । श्रेष्ठा: । भूयास्म ॥४.८७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 87

    पदार्थ -
    (ये) जो (इह) यहाँ पर (पितरः) पितर [पालक ज्ञानी] हैं, [उन के अनुग्रह से] (वयम्) हम (इह) यहाँ पर (जीवाः) जीवते हुए [सचेत] (स्मः) हैं, (ते) वे लोग (अस्मान् अनु) हमारे अनुकूलहोवें और (तेषाम्) उनके बीच (वयम्) हम (श्रेष्ठाः) श्रेष्ठ (भूयास्म) होवें ॥८७॥

    भावार्थ - श्रेष्ठ ज्ञानी पितरलोग मिलकर संसार का उपकार करें, जिन के अनुग्रह से सब मनुष्य सचेत और श्रेष्ठहोवें ॥८६-८७॥

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