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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 62
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् आस्तार पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    आ या॑त पितरःसो॒म्यासो॑ गम्भी॒रैः प॒थिभिः॑ पितृ॒याणैः॑। आयु॑र॒स्मभ्यं॒ दध॑तः प्र॒जां च॑रा॒यश्च॒ पोषै॑र॒भि नः॑ सचध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒त॒ । पि॒त॒र॒: । सो॒म्यास॑: । ग॒म्भी॒रै: । प॒थिऽभि॑: । पि॒तृ॒ऽयानै॑: । आयु॑: । अ॒स्मभ्य॑म् । दध॑त: । प्र॒ऽजाम् । च॒ । रा॒य: । च॒ । पोषै॑: । अ॒भि । न॒: । स॒च॒ध्व॒म् ॥४.६२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यात पितरःसोम्यासो गम्भीरैः पथिभिः पितृयाणैः। आयुरस्मभ्यं दधतः प्रजां चरायश्च पोषैरभि नः सचध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । यात । पितर: । सोम्यास: । गम्भीरै: । पथिऽभि: । पितृऽयानै: । आयु: । अस्मभ्यम् । दधत: । प्रऽजाम् । च । राय: । च । पोषै: । अभि । न: । सचध्वम् ॥४.६२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 62

    पदार्थ -
    (पितरः) हे पितरो ! [पिता आदि मान्यो] (सोम्यासः) प्रियदर्शन तुम (गम्भीरैः) गम्भीर [शान्त], (पितृयाणैः) पितरों के चलने योग्य (पथिभिः) मार्गों से (आ यात) आओ। (च) और (अस्मभ्यम्) हम को (आयुः) जीवन (च) और (प्रजाम्) प्रजा [पुत्र, पौत्र, सेवक आदि] (ददतः) देते हुए तुम (रायः) धन की (पोषैः) वृद्धियों से (नः) हमें (अभि) सब ओर (सचध्वम्) सींचो ॥६२॥

    भावार्थ - जो मनुष्य शान्तचित्त, शान्ति के मार्ग पर चलनेवाले विद्वान् महात्माओं का सत्सङ्ग करते रहते हैं, वहउत्तम जीवन और श्रेष्ठ सन्तान आदि प्रजा पाकर बहुत धनी होते हैं ॥६२॥इस मन्त्रका उत्तरार्द्ध कुछ भेद से आ चुका है-अ० ९।४।२२ ॥

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