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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 33
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - उपरिष्टाद् बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ए॒तास्ते॑ असौधे॒नवः॑ काम॒दुघा॑ भवन्तु। एनीः॒ श्येनीः॒ सरू॑पा॒ विरू॑पास्ति॒लव॑त्सा॒ उप॑तिष्ठन्तु॒ त्वात्र॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ता: । ते॒ । अ॒सौ॒ । धे॒नव॑: । का॒म॒ऽदुघा॑: । भ॒व॒न्तु॒ । एनी॑: । श्येनी॑: । सऽरू॑पा: । विऽरू॑पा: । ति॒लऽव॑त्सा: । उप॑ । ति॒ष्ठ॒न्तु॒ । त्वा॒ । अत्र॑ ॥४.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतास्ते असौधेनवः कामदुघा भवन्तु। एनीः श्येनीः सरूपा विरूपास्तिलवत्सा उपतिष्ठन्तु त्वात्र ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एता: । ते । असौ । धेनव: । कामऽदुघा: । भवन्तु । एनी: । श्येनी: । सऽरूपा: । विऽरूपा: । तिलऽवत्सा: । उप । तिष्ठन्तु । त्वा । अत्र ॥४.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 33

    पदार्थ -
    (असौ) हे अमुक पुरुष ! (ते) तेरी (एताः) यह (धेनवः) दुधेल गाएँ (कामदुघाः) कामधेनु। [कामना पूरीकरनेवाली] (भवन्तु) होवें। (एनीः) चितकबरी, (श्येनीः) धौली, (सरूपाः) एक सेरूपवाली, (विरूपाः) अलग-अलग रूपवाली, (तिलवत्साः) बड़े-बड़े बछड़ोंवाली [गौएँ] (अत्र) यहाँ (त्वा) तेरी (उप तिष्ठन्तु) सेवा करें ॥३३॥

    भावार्थ - सब मनुष्य गौओं की घासअन्न आदि से यथावत् सेवा करें, जिससे वे अभीष्ट घी, दूध, बड़े बछड़े आदि देकर उपकारकरती रहें और प्रीति बढ़ाने के लिये ऐसा प्रयत्न करें कि गौएँ और बछड़े अनेकरंगों और नामों के होवें ॥३३॥

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