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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 15
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अ॒ग्निर्होता॑ध्व॒र्युष्टे॒ बृह॒स्पति॒रिन्द्रो॑ ब्र॒ह्मा द॑क्षिण॒तस्ते॑ अस्तु। हु॒तोऽयं संस्थि॑तो य॒ज्ञ ए॑ति॒ यत्र॒ पूर्व॒मय॑नं हु॒ताना॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि: । होता॑ । अ॒ध्व॒र्यु: । ते॒ । बृह॒स्पति॑: । इन्द्र॑: । ब्र॒ह्मा । द॒क्षि॒ण॒त: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । हु॒त: । अ॒यम् । सम्ऽस्थि॑त: । य॒ज्ञ: । ए॒ति॒ । यत्र॑ । पूर्व॑म् । अय॑नम् । हु॒ताना॑म् ॥४.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्होताध्वर्युष्टे बृहस्पतिरिन्द्रो ब्रह्मा दक्षिणतस्ते अस्तु। हुतोऽयं संस्थितो यज्ञ एति यत्र पूर्वमयनं हुतानाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि: । होता । अध्वर्यु: । ते । बृहस्पति: । इन्द्र: । ब्रह्मा । दक्षिणत: । ते । अस्तु । हुत: । अयम् । सम्ऽस्थित: । यज्ञ: । एति । यत्र । पूर्वम् । अयनम् । हुतानाम् ॥४.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 15

    पदार्थ -
    [हे यजमान !] (ते)तेरे लिये (अग्निः) [एक] विद्वान् पुरुष (होता) होता [मन्त्रों से आहुतिदेनेवाला], (बृहस्पतिः) [एक] बृहस्पति [विद्वानों का पालनकर्ता] (अध्वर्युः)अध्वर्यु [यज्ञ करानेवाला] (इन्द्रः) [एक] परम ऐश्वर्यवान् महाविद्वान् (ब्रह्मा) ब्रह्मा [चारों वेद जाननेवाला यज्ञनिरीक्षक पुरुष] (ते) तेरी (दक्षिणतः) दाहिनी ओर में (अस्तु) होवे। (अयम्) यह (हुतः) आहुति दिया गया और (संस्थितः) पूरा किया गया (यज्ञः) यज्ञ (एति) [वहाँ] जाता है, (यत्र) जहाँ (हुतानाम्) आहुति दिये हुए [यज्ञों] का (पूर्वम्) मुख्य (अयनम्) जाना होता है॥१५॥

    भावार्थ - विद्वान् यजमानवेदवेत्ता विद्वानों को होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा आदि ऋत्विज अधिकारी बना करप्राचीन महात्माओं की रीति से यज्ञ को यथावधि समाप्त और सुफल करे ॥१५॥इस मन्त्रका मिलान करो ऋग्वेद−१०।७१।११ से, जो यहाँ लिखा जाता है और जिसकी व्याख्याभगवान् यास्कमुनि नेनिरु० १।८ में की है ॥ ऋ॒चां त्वः॒ पोष॑मास्तेपुपु॒ष्वान् गाय॒त्रं त्वो॑ गायति॒ शक्व॑रीषु। ब्र॒ह्मा त्वो॒ वद॑ति जातवि॒द्यांय॒ज्ञस्य॒ मात्रां॒ वि मि॑मीत उ त्वः ॥(त्वः) एक [होता] (ऋचाम्) ऋचाओं के (पोषम्) विधान की (पुपुष्वान्) पुष्टि करता हुआ (आस्ते) बैठता है, (त्वः) एक [उद्गाता] (गायत्रम्) गाने योग्य [स्तोत्र] को (शाक्वरीषु) शक्तिवाली ऋचाओं में (गायति) गाता है। (त्वः) एक (ब्रह्मा) ब्रह्मा [सब विद्याएँ जाननेवाला] (जातविद्याम्) होते हुए कर्म में विद्या (वदति) बताता है, (त्वः) एक [अध्वर्यु] (यज्ञस्य) यज्ञ के (मात्राम्) परिमाण को (उ) ही (वि) विविध प्रकार (मिमीते)बनाता है ॥

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