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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 49
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुब्गर्भा त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    आ प्रच्य॑वेथा॒मप॒ तन्मृ॑जेथां॒ यद्वा॑मभि॒भा अत्रो॒चुः। अ॒स्मादेत॑म॒घ्न्यौतद्वशी॑यो दा॒तुः पि॒तृष्वि॒हभो॑जनौ॒ मम॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । प्र । च्य॒वे॒था॒म् । अप॑ । तत् । मृ॒जे॒था॒म् । यत् । वा॒म् । अभि॒ऽभा: । अत्र॑ । ऊ॒चु: । अ॒स्मात् । आ । इ॒त॒म् । अघ्न्यौ । तत् । वशी॑य: । दा॒तु: । पि॒तृषु॑ । इ॒हऽभो॑जनौ । मम॑ ॥४.४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ प्रच्यवेथामप तन्मृजेथां यद्वामभिभा अत्रोचुः। अस्मादेतमघ्न्यौतद्वशीयो दातुः पितृष्विहभोजनौ मम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । प्र । च्यवेथाम् । अप । तत् । मृजेथाम् । यत् । वाम् । अभिऽभा: । अत्र । ऊचु: । अस्मात् । आ । इतम् । अघ्न्यौ । तत् । वशीय: । दातु: । पितृषु । इहऽभोजनौ । मम ॥४.४९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 49

    पदार्थ -
    [हे स्त्री-पुरुषो !]तुम दोनों (आ) सब ओर (प्रच्यवेथाम्) आगे बढ़ो, और (तत्) उस [पाप] को (अपमृजेथाम्) शोध डालो, (यत्) जिस को (वाम्) तुम दोनों के (अभिभाः) सामने चमकतीहुई आपत्तियों ने (अत्र) यहाँ पर (ऊचुः) बताया है। (पितृषु) पितरों के बीच (दातुः मम) मुझ दानी के (इहभोजनौ) यहाँ पालन करनेवाले (अघ्न्यौ) हिंसा नकरनेवाले तुम दोनों (अस्मात्) इस [पाप] से पृथक् होकर (तत्) उस [सुकर्म] को (आ)सब प्रकार (इतम्) प्राप्त हो [जो सुकर्म] (वशीयः) अधिक वश करनेवाला है ॥४९॥

    भावार्थ - जिस पाप के कारणमनुष्य पर अनेक विपत्तियाँ आपड़ती हैं, स्त्री-पुरुष पुरुषार्थपूर्वक विद्वान्पितरों की आज्ञा मान कर उस पाप को हटाकर सुकर्म में प्रवृत्त हों, क्योंकिसुकर्म ही से मनुष्य पाप को वश में करता है ॥४९॥

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