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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 41
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    समि॑न्धते॒अम॑र्त्यं हव्य॒वाहं॑ घृत॒प्रिय॑म्। स वे॑द॒ निहि॑तान्नि॒धीन्पि॒तॄन्प॑रा॒वतो॑ग॒तान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । इ॒न्ध॒ते॒ । अम॑र्त्यम् । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । घृ॒त॒ऽप्रिय॑म् । स: । वे॒द॒ । निऽहि॑तान् । नि॒ऽधीन् । पि॒तॄन् । परा॒ऽवत॑: । ग॒तान् ॥४.४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिन्धतेअमर्त्यं हव्यवाहं घृतप्रियम्। स वेद निहितान्निधीन्पितॄन्परावतोगतान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । इन्धते । अमर्त्यम् । हव्यऽवाहम् । घृतऽप्रियम् । स: । वेद । निऽहितान् । निऽधीन् । पितॄन् । पराऽवत: । गतान् ॥४.४१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 41

    पदार्थ -
    वे [पितर लोग] (अमर्त्यम्) अमर [न मरते हुए पुरुषार्थी], (हव्यवाहम्) ग्रहण करने योग्यपदार्थों के पहुँचानेवाले, (घृतप्रियम्) घी आदि को प्रिय जाननेवाले [जिस] पुरुषको (सम्) यथाविधि [ज्ञान से] (इन्धते) प्रकाशमान करते हैं। (सः) वह [पुरुष] (परावतः) पराक्रम से चलनेवाले (पितॄन्) पितरों को (गतान्) प्राप्त हुए और (निहितान्) संग्रह किये हुए (निधीन्) [रत्न सुवर्ण आदि के] कोशों को (वेद)जानता है ॥४१॥

    भावार्थ - जो मनुष्य माता-पिता आदि पितरों की सेवा घृत, दुग्ध आदि उत्तम पदार्थों से करते हैं, वे पितृभक्त उनपितरों की कृपा से विद्यारत्न प्राप्त करके बड़े धनी होते हैं ॥४१॥

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