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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 54
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ऊ॒र्जो भा॒गो यइ॒मं ज॒जानाश्मान्ना॑ना॒माधि॑पत्यं ज॒गाम॑। तम॑र्चत वि॒श्वमि॑त्रा ह॒विर्भिः॒ सनो॑ य॒मः प्र॑त॒रं जी॒वसे॑ धात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ज: । भा॒ग: । य: । इ॒मम् । ज॒जान॑ । अश्मा॑ । अन्ना॑नाम् । आधि॑ऽपत्यम् । ज॒गाम॑ । तम् । अ॒र्च॒त॒ । वि॒श्वऽमि॑त्रा: । ह॒वि:ऽभि॑: । स: । न॒:। य॒म: । प्र॒ऽत॒रम् । जी॒वसे॑ । धा॒त् ॥४.५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्जो भागो यइमं जजानाश्मान्नानामाधिपत्यं जगाम। तमर्चत विश्वमित्रा हविर्भिः सनो यमः प्रतरं जीवसे धात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ज: । भाग: । य: । इमम् । जजान । अश्मा । अन्नानाम् । आधिऽपत्यम् । जगाम । तम् । अर्चत । विश्वऽमित्रा: । हवि:ऽभि: । स: । न:। यम: । प्रऽतरम् । जीवसे । धात् ॥४.५४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 54

    पदार्थ -
    (ऊर्जः) पराक्रम के (यः) जिस (भागः) भाग करनेवाले [परमेश्वर] ने (इमम्) इस [संसार] को (जजान)उत्पन्न किया है और (अश्मा) व्यापक होकर (अन्नानाम्) अन्नों का (आधिपत्यम्)स्वामिपन (जगाम) पाया है। (तम्) उस [परमात्मा] को (विश्वमित्राः) सबके मित्र तुम (हविर्भिः) आत्मदानों से (अर्चत) पूजो, (सः) वह (यमः) न्यायकारी परमेश्वर (नः)हमें (प्रतरम्) अधिक उत्तमता से (जीवसे) जीने के लिये (धात्) धारणकरे ॥५४॥

    भावार्थ - जगत्स्रष्टा परमेश्वरसब प्राणियों को उन के पुरुषार्थ के अनुसार सामर्थ्य देकर अन्न आदि देता है, इसलिये मनुष्य अधिक-अधिक पुरुषार्थ करके अपने जीवन को अधिक-अधिक ऊँचा बनावें॥५४॥इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध ऊपर आ चुका है-अ० १८।३।६३ ॥

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