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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 28
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    द्र॒प्सश्च॑स्कन्द पृथि॒वीमनु॒ द्यामि॒मं च॒ योनि॒मनु॒ यश्च॒ पूर्वः॑। स॑मा॒नंयोनि॒मनु॑ सं॒चर॑न्तं द्र॒प्सं जु॑हो॒म्यनु॑ स॒प्त होत्राः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्र॒प्स: । च॒स्क॒न्द॒: । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ । द्याम् । इ॒मम् । च॒ । योनि॑म् । अनु॑ । य॒: । च॒ । पूर्व॑: । स॒मा॒नम् । योनि॑म् । अनु॑ । स॒म्ऽचर॑न्तम् । द्र॒प्सम् । जु॒हो॒मि॒ । अनु॑ । स॒प्त । होत्रा॑: ॥४.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्रप्सश्चस्कन्द पृथिवीमनु द्यामिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः। समानंयोनिमनु संचरन्तं द्रप्सं जुहोम्यनु सप्त होत्राः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्रप्स: । चस्कन्द: । पृथिवीम् । अनु । द्याम् । इमम् । च । योनिम् । अनु । य: । च । पूर्व: । समानम् । योनिम् । अनु । सम्ऽचरन्तम् । द्रप्सम् । जुहोमि । अनु । सप्त । होत्रा: ॥४.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 28

    पदार्थ -
    (द्रप्सः) हर्षकारकपरमात्मा (पृथिवीम्) पृथिवी और (द्याम् अनु) प्रकाश में (च) और (इमम्) इस(योनिम् अनु) घर [शरीर] में (च) और [उस शरीर में भी] (चस्कन्द) व्यापक है (यः)जो [शरीर] (पूर्वः) पहिला है। (समानम्) समान [सर्वसाधारण] (योनिम् अनु) कारण में (संचरन्तम्) विचरते हुए (द्रप्सम्) हर्षकारक परमात्मा को (सप्त) सात [मस्तक केसात गोलक] (होत्राः अनु) विषय ग्रहण करनेवाली शक्तियों के साथ (जुहोमि) मैंग्रहण करता हूँ ॥२८॥

    भावार्थ - जो परमेश्वर अन्धकारऔर प्रकाश में, हमारे वर्तमान और पूर्व शरीर में और प्रत्येक सर्वसाधारण कारणमें व्यापक है, सब मनुष्य योगाभ्यास से इन्द्रियों को वश में करके उस जगदीश्वरकी भक्ति करें ॥२८॥अथर्ववेद काण्ड १०।२।६ में आया है−“कर्ता [परमेश्वर] ने [मनुष्य के] मस्तक में सात गोलक खोदे, यह दोनों कान, दोनों नथने, दोनों आँखें औरएक मुख। जिन के विजय की महिमा में चौपाये और दोपाये जीव अनेक प्रकार से मार्गचलते हैं” ॥यह मन्त्र अभेद से यजुर्वेद में है−१३।५, और कुछ भेद से ऋग्वेद मेंहै−१०।१७।११ ॥

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