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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 26
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - विराट् उपरिष्टाद् बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    यास्ते॑ धा॒नाअ॑नुकि॒रामि॑ ति॒लमि॑श्राः स्व॒धाव॑तीः। तास्ते॑ सन्तू॒द्भ्वीःप्र॒भ्वीस्तास्ते॑ य॒मो राजानु॑ मन्यताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । ते॒ । धा॒ना: । अ॒नु॒ऽकि॒रामि । ति॒लऽमि॑श्रा: । स्व॒धाऽव॑ती: । ता: । ते॒ । स॒न्तु॒ । उ॒त्ऽभ्वी: । प्र॒ऽभ्वी: । ता: । ते॒ । य॒म: । राजा॑ । अनु॑ । म॒न्य॒ता॒म् ॥४.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यास्ते धानाअनुकिरामि तिलमिश्राः स्वधावतीः। तास्ते सन्तूद्भ्वीःप्रभ्वीस्तास्ते यमो राजानु मन्यताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । ते । धाना: । अनुऽकिरामि । तिलऽमिश्रा: । स्वधाऽवती: । ता: । ते । सन्तु । उत्ऽभ्वी: । प्रऽभ्वी: । ता: । ते । यम: । राजा । अनु । मन्यताम् ॥४.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 26

    पदार्थ -

    [हे यजमान !] (ते)तेरे लिये (याः) जिन (तिलमिश्राः) तिलों से मिली हुई, (स्वधावतीः) उत्तमअन्नवाली (धानाः) धानाओं [सुसंस्कृत पौष्टिक पदार्थों] को (अनुकिरामि) [अग्निमें] मैं [ऋत्विज्] अनुकूल रीति से फैलाता हूँ। (ताः) वे [सब सामग्री] (ते) तेरेलिये (उद्भ्वीः) उदय करानेवाली और (प्रभ्वीः) प्रभुतावाली (सन्तु) होवें, और (ताः) उन [सामग्रियों] को (ते) तेरे लिये (यमः) संयमी (राजा) राजा [शासक अर्थात् याजक पुरुष] (अनु) अनुकूल (मन्यताम्) जाने ॥२६॥

    भावार्थ -

    यज्ञ करानेवाला पुरुषयथाविधि संशोधित तिल, जौ, चावल आदि जिन सामग्रियों से हवन करता है, उसके द्वारावायुमण्डल की शुद्धि से संसार का उपकार और यजमान का अधिक पुण्य होता है ॥ २६, २७॥यह मन्त्र आगे है-अ० १८।४।४३ और कुछ भेद से आ चुका है-अ० १८।३।६९ ॥

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