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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 59
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    त्वे॒षस्ते॑ धू॒मऊ॑र्णोतु दि॒वि षं छु॒क्र आत॑तः। सूरो॒ न हि द्यु॒ता त्वं॑ कृ॒पा पा॑वक॒ रोच॑से॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे॒ष: । ते॒ । धू॒म: । ऊ॒र्णो॒तु॒ । दि॒वि । सन् । शु॒क्र: । आऽत॑त: । सुर॑: । न । हि । द्यु॒ता । त्वम् । कृपा । पा॒व॒क॒ । रोच॑से ॥४.५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वेषस्ते धूमऊर्णोतु दिवि षं छुक्र आततः। सूरो न हि द्युता त्वं कृपा पावक रोचसे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वेष: । ते । धूम: । ऊर्णोतु । दिवि । सन् । शुक्र: । आऽतत: । सुर: । न । हि । द्युता । त्वम् । कृपा । पावक । रोचसे ॥४.५९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 59

    पदार्थ -
    [हे परमात्मन् !] (ते)तेरा (सन्) श्रेष्ठ, (शुक्रः) निर्मल (आततः) सब ओर फैला हुआ (त्वेषः) प्रकाश [हमको] (दिवि) आकाश में (धूमः) भाप [जैसे, वैसे] (ऊर्णोतु) ढक लेवे। (पावक) हे शोधक ! [परमेश्वर] (सूरःन) जैसे सूर्य (द्युता) अपने प्रकाश से [वैसे] (त्वम्) तू (हि)ही (कृपा) अपनी कृपा से (रोचसे) चमकता है ॥५९॥

    भावार्थ - जैसे मेघ के कण आकाशमें व्यापक रहते हैं, वैसे ही परमात्मा को हम लोग सर्वत्र व्यापक साक्षात् करें, वह कृपालु जगदीश्वर सूर्यसमान सब में प्रकाशमान है ॥५९॥यह मन्त्र कुछ भेद सेऋग्वेद में है−६।२।६। और सामवेद में पू० १।९।३ ॥

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