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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 56
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - ककुम्मती अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    इ॒दं हिर॑ण्यंबिभृहि॒ यत्ते॑ पि॒ताबि॑भः पु॒रा। स्व॒र्गं य॒तः पि॒तुर्हस्तं॒ निर्मृ॑ड्ढि॒दक्षि॑णम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । हिर॑ण्यम् । बि॒भृ॒हि॒ । यत् । ते॒ । पि॒ता । अबि॑भ: । पु॒रा । स्व॒:ऽगम् । य॒त: । पि॒तु: । हस्त॑म् नि: । मृ॒ड्ढि॒ । दक्षि॑णम् ॥४.५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं हिरण्यंबिभृहि यत्ते पिताबिभः पुरा। स्वर्गं यतः पितुर्हस्तं निर्मृड्ढिदक्षिणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । हिरण्यम् । बिभृहि । यत् । ते । पिता । अबिभ: । पुरा । स्व:ऽगम् । यत: । पितु: । हस्तम् नि: । मृड्ढि । दक्षिणम् ॥४.५६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 56

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (इदम्)इस (हिरण्यम्) सुवर्ण को (बिभृहि) तू धारण कर, (यत्) जैसे (ते) तेरे (पिता) पिताने (पुरा) पहिले (अबिभः) धारण किया है। और (स्वर्गम्) सुख देनेवाले पद को (यतः)प्राप्त होते हुए (पितुः) पिता के (दक्षिणम्) दाहिने [वा उदार और कार्यकुशल] (हस्तम्) हाथ को (नि) निश्चय करके (मृड्ढि) शोभायमन कर ॥५६॥

    भावार्थ - मनुष्य बड़े पुरुषोंके समान सुवर्ण आदि धन प्राप्त करें और उपकारी कार्यों में चतुर होने के लियेयुवराज बनकर बड़े लोगों का हाथ बटावें अर्थात् सहाय करें ॥५६॥

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