Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 66
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिपदा स्वराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
असौ॒ हा इ॒ह ते॒मनः॒ ककु॑त्सलमिव जा॒मयः॑। अ॒भ्येनं भूम ऊर्णुहि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒सौ । है । इ॒ह । ते॒ । मन॑: । ककु॑त्सलम्ऽइव । जा॒मय॑: । अ॒भि । ए॒न॒म् । भू॒मे॒ । ऊ॒र्णु॒हि॒ ॥४.६६॥
स्वर रहित मन्त्र
असौ हा इह तेमनः ककुत्सलमिव जामयः। अभ्येनं भूम ऊर्णुहि ॥
स्वर रहित पद पाठअसौ । है । इह । ते । मन: । ककुत्सलम्ऽइव । जामय: । अभि । एनम् । भूमे । ऊर्णुहि ॥४.६६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 66
विषय - पितरों के सत्कार का उपदेश।
पदार्थ -
[हे मनुष्य !] (असौ)वह [पिता आदि] (है) निश्चय करके (इह) यहाँ पर [हम में] (ते) तेरे (मनः) मन को [ढकता है], (इव) जैसे (जामयः) कुलस्त्रियाँ (ककुत्सलम्) सुख का शब्द सुनानेवालेको [अर्थात् लढ़ैते बालक को वस्त्र से ढकती हैं]। (भूमे) हे भूमितुल्य [सर्वाधार विद्वान् !] (एनम्) इस [पिता आदि जन] को (अभि) सब ओर से (ऊर्णुहि) तूढक [सुख दे] ॥६६॥
भावार्थ - जैसे माता-पिता आदिपितर लोग छोटे प्रिय सन्तान की वस्त्र आदि से रक्षा करते और ज्ञान देते हैं, वैसे ही लोग उन पिता आदि की यथोचित सेवा करें ॥६६॥इस मन्त्र का अन्तिम पाद आचुका है-अ० १८।२।५०, ५१, तथा १८।३।५० और इस मन्त्र का मिलान भी उन मन्त्रों सेकरो ॥
टिप्पणी -
६६−(असौ) पित्रादिः (है) निश्चयेन (इह) अत्र। अस्मासु (ते) तव (मनः)अन्तःकरणम् (ककुत्सलम्) क+कु कुङ् वा शब्दे-क्विप्, तुक्+षल गतौ-अच्। कस्यसुखस्य शब्दप्रापकं प्रियवाचं सन्तानम् (इव) यथा (जामयः) कुलस्त्रियः (अभि)सर्वतः (एनम्) पित्रादिकम् (भूमे) हे भूमितुल्य सर्वाधार विद्वन् (ऊर्णुहि)आच्छादय। सुखय ॥