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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 58
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    वृषा॑ मती॒नांप॑वते विचक्ष॒णः सूरो॒ अह्नां॑ प्र॒तरी॑तो॒षसां॑ दि॒वः। प्रा॒णः सिन्धू॑नांक॒लशाँ॑ अचिक्रद॒दिन्द्र॑स्य॒ हार्दि॑मावि॒शन्म॑नी॒षया॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । म॒ती॒नाम् । प॒व॒ते॒ । वि॒ऽच॒क्ष॒ण: । सूर॑: । अह्ना॑म् । प्र॒ऽतरी॑ता । उ॒षसा॑म् । दि॒व: । प्रा॒ण: । सिन्धू॑नाम् । क॒लशा॑न् । अ॒चि॒क्र॒द॒त् । इन्द्र॑स्य । हार्दि॑म् । आ॒ऽवि॒शन् । म॒नी॒षया॑ ॥४.५८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा मतीनांपवते विचक्षणः सूरो अह्नां प्रतरीतोषसां दिवः। प्राणः सिन्धूनांकलशाँ अचिक्रददिन्द्रस्य हार्दिमाविशन्मनीषया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । मतीनाम् । पवते । विऽचक्षण: । सूर: । अह्नाम् । प्रऽतरीता । उषसाम् । दिव: । प्राण: । सिन्धूनाम् । कलशान् । अचिक्रदत् । इन्द्रस्य । हार्दिम् । आऽविशन् । मनीषया ॥४.५८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 58

    पदार्थ -
    (वृषा) परमऐश्वर्यवान्, (विचक्षणः) विशेष दृष्टिवाला परमेश्वर (मतीनाम्) बुद्धियों का (पवते) पवित्रकारी है, [जैसे] (सूरः) सूर्य (दिवः) [अपने] प्रकाश से (अह्नाम्)दिनों का और (उषसाम्) प्रभात वेलाओं का (प्रतरीता) फैलानेवाला है। (सिन्धूनाम्)नदियों के (प्राणः) प्राण [चेष्टा देनेवाले उस परमेश्वर] ने (मनीषया)बुद्धिमत्ता से (इन्द्रस्य) सूर्य के (हार्दिम्) हार्दिक शक्ति में (आविशन्)प्रवेश करके (कलशान्) कलसों [घड़ों समान मेघों] को (अचिक्रदत्) गुंजाया है ॥५८॥

    भावार्थ - जैसे सूर्य अपनेप्रकाश से सब पदार्थों को प्रकाशित करता है, वैसे ही परमात्मा अपने ज्ञान सेआज्ञाकारी भक्तों की बुद्धियों को निर्मल करता है, वही परमेश्वर सूर्य के भीतरआकर्षण गुण देकर मेघों में गर्जन उत्पन्न करता और जल बरसाता है ॥५८॥यह मन्त्रकुछ भेद से ऋग्वेद में है−९।८६।१९ और सामवेद में पू० ६।७।६ तथा उ० २।१।१७॥

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