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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 48
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    पृ॑थि॒वीं त्वा॑पृथि॒व्यामा वे॑शयामि दे॒वो नो॑ धा॒ता प्र ति॑रा॒त्यायुः॑। परा॑परैतावसु॒विद्वो॑ अ॒स्त्वधा॑ मृ॒ताः पि॒तृषु॒ सं भ॑वन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒थि॒वीम् । त्वा॒ । पृ॒थि॒व्याम् । आ । वे॒श॒या॒मि॒ । दे॒व: । न॒: । धा॒ता । प्र । त॒र॒ति॒ । आयु॑: । परा॑ऽपरैता । व॒सु॒ऽवित् । व: । अ॒स्तु॒ । अध॑ । मृ॒ता: । पि॒तृषु॑ । सम् । भ॒व॒न्तु॒ ॥४.४८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृथिवीं त्वापृथिव्यामा वेशयामि देवो नो धाता प्र तिरात्यायुः। परापरैतावसुविद्वो अस्त्वधा मृताः पितृषु सं भवन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृथिवीम् । त्वा । पृथिव्याम् । आ । वेशयामि । देव: । न: । धाता । प्र । तरति । आयु: । पराऽपरैता । वसुऽवित् । व: । अस्तु । अध । मृता: । पितृषु । सम् । भवन्तु ॥४.४८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 48

    पदार्थ -
    [हे प्रजा ! स्त्री वापुरुष] (पृथिवीम् त्वा) तुझ प्रख्यात को (पृथिव्याम्) प्रख्यात [विद्या] के भीतर (आ वेशयामि) मैं [माता-पिता आचार्य आदि] प्रवेश कराता हूँ, (देवः) प्रकाशस्वरूप (धाता) धाता [पोषक परमात्मा] (नः) हमारी (आयुः) आयु को (प्र तिराति) बढ़ावे। (परापरैता)अत्यन्त पराक्रम से चलनेवाला पुरुष (वः) तुम्हारे लिये (वसुवित्) श्रेष्ठपदार्थों का पानेवाला (अस्तु) होवे, (अध) तब (मृताः) मरे हुए [निरुत्साहीपुरुष] (पितृषु) पितरों [पालक विद्वानों] के बीच (सं भवन्तु) समर्थ होवें ॥४८॥

    भावार्थ - माता-पिता आचार्य आदिसन्तानों को उत्तम विद्या देवें, जिससे वे परमेश्वर के भक्त होकर श्रेष्ठ जीवनबितावें और बड़े नेता और श्रेष्ठ धनी होवें और उनके देखने से निरुत्साही भीउत्साही होकर पितरों में स्थान पावें ॥४८॥इस मन्त्र का प्रथम पाद ऊपर आ चुका है-अ०१२।३।२२ ॥

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