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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 84
    सूक्त - पितरगण देवता - साम्नी त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    नमो॑ वः पितरो॒यच्छि॒वं तस्मै॒ नमो॑ वः पितरो॒ यत्स्यो॒नं तस्मै॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑:। व॒: । पि॒त॒र॒: । यत् । शि॒वम् । तस्मै॑ । नम॑: । व॒: । पि॒त॒र॒: । यत् । स्यो॒नम् । तस्मै॑ ॥४.८४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमो वः पितरोयच्छिवं तस्मै नमो वः पितरो यत्स्योनं तस्मै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम:। व: । पितर: । यत् । शिवम् । तस्मै । नम: । व: । पितर: । यत् । स्योनम् । तस्मै ॥४.८४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 84

    पदार्थ -
    (पितरः) हे पितरो ! [पालक ज्ञानियो] (यत्) जो कुछ (शिवम्) मङ्गलकारी है, (तस्मै) उसे पाने के लिये (वः) तुम को (नमः) नमस्कार हो, (पितरः) हे पितरो ! [पालक ज्ञानियो] (यत्) जो कुछ (स्योनम्) सुखदायक है, (तस्मै) उसके लाभ के लिये (वः) तुम को (नमः) नमस्कार हो॥८४॥

    भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये किपराक्रम आदि शुभ गुणों की प्राप्ति के लिये और क्रोध आदि दुर्गुणों की निवृत्तिके लिये ज्ञानी पितरों का अनेक प्रकार सत्कार करके सदुपदेश ग्रहण करें॥८१-८५॥

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