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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 104
    ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिग् गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अग्ने॒ यत्ते॑ शु॒क्रं यच्च॒न्द्रं यत्पू॒तं यच्च॑ य॒ज्ञिय॑म्। तद्दे॒वेभ्यो॑ भरामसि॥१०४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। यत्। ते॒। शु॒क्रम्। यत्। च॒न्द्रम्। यत्। पू॒तम्। यत्। च॒। य॒ज्ञिय॑म्। तत्। दे॒वेभ्यः॑। भ॒रा॒म॒सि॒ ॥१०४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने यत्ते शुक्रँयच्चन्द्रँयत्पूतँयच्च यज्ञियम् । तद्देवेभ्यो भरामसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। यत्। ते। शुक्रम्। यत्। चन्द्रम्। यत्। पूतम्। यत्। च। यज्ञियम्। तत्। देवेभ्यः। भरामसि॥१०४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 104
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्वान मनुष्य, (यत्‌) अग्नीचे (यत्‌) जे (शुक्रम्‌) शीर्घ प्रभावकारी आणि (यत्‌) जे (चन्द्रम्‌) सुवर्णाप्रमाणे आल्हाददायक गुण आहे, तसेच अग्नीचे जे (पूतम्‌) पवित्र (च) आणि (यत्‌) जे (यज्ञियम्‌) यज्ञानुष्ठानासाठी योग्य स्वरूप आहे (तत्‌) ते रुप. (ते) तुमच्यासाठी उपयुक्त असून आम्ही (यज्ञीयजन) (देवेभ्य:) दिव्य गुणांचा स्वीकार करण्यासाठी (भरामसि) त्या अग्नीला धारण करतो (आनंद, पवित्र्य, उपयोग आणि यज्ञकर्म यांसाठी अग्नीचा स्वीकार करतो) ॥104॥

    भावार्थ - भावार्थ - मनुष्यांनी श्रेष्ठ गुणांच्या आणि उत्तम कर्मांच्या सिद्धीकरिता विद्युत आदी अग्नीच्या विविधशक्तींचा विषयी अधिकाधिक शोध व विचार करावा. ॥104॥

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