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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 114
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - आर्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    आप्या॑यस्व मदिन्तम॒ सोम॒ विश्वे॑भिर॒ꣳशुभिः॑। भवा॑ नः स॒प्रथ॑स्तमः॒ सखा॑ वृ॒धे॥११४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। प्या॒य॒स्व॒। म॒दि॒न्त॒मेति॑ मदिन्ऽतम। सोम॑। विश्वे॑भिः। अ॒ꣳशुभि॒रित्य॒ꣳशुऽभिः॑। भव॑। नः॒। स॒प्रथ॑स्तम॒ इति॑ स॒प्रथः॑ऽतमः। सखा॑। वृ॒धे॒ ॥११४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आप्यायस्व मदिन्तम सोम विश्वेभिरँशुभिः । भवा नः सुश्रवस्तमः सखा वृधे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। प्यायस्व। मदिन्तमेति मदिन्ऽतम। सोम। विश्वेभिः। अꣳशुभिरित्यꣳशुऽभिः। भव। नः। सप्रथस्तम इति सप्रथःऽतमः। सखा। वृधे॥११४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 114
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (मन्दितम:) अत्यंद आनंदी असणारे (सोम) ऐश्‍वर्यवान महोदय (अंशुभि:) सूर्य जसा किरणांनी समृद्ध आहे, तसे आपण (विश्‍वेन्नि:) सर्व सुखमय साधनांनी (आऱ्यायस्व) समृद्ध व्हा (त्यांचा उपभोग घ्या) (सप्रथस्तम्‌:) सर्वांसाठी सुखी आणि आनंदाचा विस्तार करणारे आपण आमचे (सखा) मित्र होऊन (न:) आमच्या (सर्व सामाजिकजनांसाठी) (वृधे) उत्कर्षासाठी (भव तत्परव्हा) (आपला तसेच आमचाही उत्कर्ष व्हावा) ॥114॥

    भावार्थ - भावार्थ - सर्वांचे हित करणारा माणूसच या जगात सर्वप्रकारे उत्कर्ष प्राप्त करतो. इतरांशी ईर्ष्या-द्वेष करणाऱ्यांची कधीही उन्नत्ती होत नाही ॥114॥

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