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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 47
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒यꣳसोऽअ॒ग्निर्यस्मि॒न्त्सोम॒मिन्द्रः॑ सु॒तं द॒धे ज॒ठरे॑ वावशा॒नः। स॒ह॒स्रियं॒ वाज॒मत्यं॒ न सप्ति॑ꣳ सस॒वान्त्सन्त्स्तू॑यसे जातवेदः॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। सः। अ॒ग्निः। यस्मि॑न्। सोम॑म्। इन्द्रः॑। सु॒तम्। द॒धे॒। ज॒ठरे॑। वा॒व॒शा॒नः। स॒ह॒स्रिय॑म्। वाज॑म्। अत्य॑म्। न। सप्ति॑म्। स॒स॒वानिति॑ सस॒ऽवान्। सन्। स्तू॒य॒से॒। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयँ सोऽअग्निर्यस्मिन्त्सोममिन्द्रः सुतन्दधे जठरे वावशानः । सहस्रियँवाजमत्यन्न सप्तिँ ससवान्त्सन्त्स्तूयसे जातवेदः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। सः। अग्निः। यस्मिन्। सोमम्। इन्द्रः। सुतम्। दधे। जठरे। वावशानः। सहस्रियम्। वाजम्। अत्यम्। न। सप्तिम्। ससवानिति ससऽवान्। सन्। स्तूयसे। जातवेद इति जातऽवेदः॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 47
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (जातवेद:) पदार्थ विज्ञान जाणणाऱ्या विद्वान, ज्याप्रमाणे आपण (ससवान्‌) (सन्‌) दान देतेवेळी (अपन्‌) हे (अग्नि:) अग्नी आणि (इंन्द्र:) सूर्य (यस्मिन्‌) ज्या (सोमम्‌) औषधींमध्ये रस भरतात, त्या औषधींपासून रस (सुतम्‌) काढून तयार केलेल्या पदार्थांना मी एक गृहस्थाश्रमी आपल्या (जठरे) पोटात (दधे) धारण करतो (त्या वस्तूंचे पोषक औषध म्हणून सेवन करतो) (स:) तो मी (वावशाम:) शीघ्र (स्वास्थ्य वा संततीची) कामना करीत (सहस्त्रियम्‌) आपल्या पत्नी धारण करतो. तसेच हे विद्वान, आपल्यासह (वाजम्‌) अन्न आदी पदार्थांचे (सेवन करतो) (अत्यम) (सप्तिम्‌) शीघ्रगामी घोड्याप्रमाणे अन्नादीद्वारे शक्ती धारण करतो. तुम्ही देखील माझ्याप्रमाणे व्हा (उत्तम पौष्टिक अन्न खा) ॥47॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा आणि उपमा अलंकार आहेत. ज्याप्रमाणे विद्युत आणि सूर्य सर्व रसांचे कर्षण करून जगाला रसमय करतात, अथवा जसे पतीबरोबर पत्नी आणि पत्नी सह पती आनंद उपभोगतात, तद्वत मी या सर्व निष्कृत रसांचे सेवन करून आनंदित होत असतो. आपण विद्वज्जन ज्याप्रमाणे प्रशंसनीय आहात, मी देखील तसे व्हावे, (अशी कामना करतो) ॥47॥

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